________________ श्री मौन एकादशी व्रत कथा ******************************** / 99 (201 श्री मौन एकादशी व्रत कथा) घाति घात केवल लहो, लहो चतुष्क अनंत। सरल मोक्ष मग जिन कियो, वन्यूँ सो अर्हत॥ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कौशल्य देश हैं। उसमें यमुना नदीके तटपर कौशांबी नामकी नगरी हैं, उसी नगरमें परमपूज्य छठवें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभुका जन्मकल्याणक हुआ था। एक समय इसी नगरमें हरिवाहन नामका राजा और उसकी शशिप्रभा पट्टरानी थी। राजपुत्रका नाम सुकौशल था। यह राजकुमार सर्व विद्या और कलाओंमें निपूण होने पर भी निरन्तर खेल तमाशों आदि क्रीडाओंमें निमग्न रहता था। और राजकाजकी ओर बिलकुल भी ध्यान न देता था। इसलिये राजाको निरन्तर चिंता रहने लगी कि राजपुत्र राज्यकार्यमें योग नहीं देता है, तब भविष्यमें कार्य कैसा चलेगा? एक समय भाग्योदयमें सोमप्रभ नामके महामुनिराज संघ सहित विहार करते हुए इसी नगरमें उद्यानमें पधारे। राजाने वनमाली द्वारा ये शुभ समाचार सुनकर पुरवासियों सहित हर्षित होकर श्री गुरुके दर्शनोंको प्रयाण किया। और वहां पहुंचकर भक्तिभावसे वंदना स्तुति करके धर्मश्रवणकी इच्छासे नतमस्तक होकर बैठ गया। श्री गुरुने प्रथम मिथ्यात्वके छूडानेवाले और संसारमें भय उत्पन्न करानेवाले ऐसे मोक्षमार्गका व्याख्यान सुनाया, मुनि और श्रावकके धर्मको पृथक्कर करके समझाया और यह भी परम्परा मोक्षका कारण समझना चाहिए। यथार्थमें तो भव्य जीवोंको मुनिधर्म ही पालन करना चाहिए, परंतु यदि शक्तिहीनताके कारण एकाएक मुनिधर्म न धारण कर सकें, तो कमसे कम