________________ 38] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** हो गई। एक दिन कन्याने अपनी ही बुद्धिसे चौकीपर श्रुतस्कंध मण्डल बनाया। इसे देखकर गुरानीको आश्चर्य हुआ और कन्याकी बहुत प्रशंसा की तथा समझा कि अब यह विद्यामें निपुण हो चुकी है, इसलिये उसे सहर्ष राजाके पास घर जानेकी आज्ञा दी। राजा कन्याको विदुषी देखकर बहुत हर्षित हुआ और गुरानीकी भूरि भूरि प्रशंसा की तथा उचित पुरस्कार (भेंट) भी दिया। एक दिन इसी नगरके उद्यानमें श्री 108 वर्द्धमान मुनि आये। यह समाचार सुनकर राजा अपने परिवार तथा पुरजनों सहित उत्साहसे वन्दनाको गये। और भक्तिपूर्वक वन्दना करके मुनि चरणोंके निकट बैठा। मुनिराजने धर्मवृद्धि कहकर धर्मका स्वरूप समझाया, जिसे सुनकर लोगोंने यथाशक्ति व्रतादिक लिये। पश्चात् राजाने कन्याकी ओर देखकर पूछा-है ऋषिराज! यह कन्या किस पुण्यसे ऐसी रूपवान और विदुषी हुई है? तब मुनिश्री बोले- इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह संबंधी पुष्कलावती देशमें पुण्डरीकनी नगरी है। वहांका राजा गुणभद्र और रानी गुणवती थी। सो एक समय यह राजा रानी सपरिवार श्रीमन्धरस्वामीकी वंदनाको गये और यथायोग्य पक्ति वंदना करके नर कोठेमें बैठे। पश्चात् सप्त तत्व और पुण्य पापका स्वरूप सुनकर श्री गुरुसे पूछा-हे प्रभु! कृपाकर श्रुतस्कन्ध व्रतका क्या स्वरूप है, सो समझाये। तब गणधर महाराजने कहा-श्री जिनेन्द्र भगवानकी दिव्यध्वनि सातिशय निरक्षरी (वाणी) मेघकी गर्जना के समान ॐकाररुप भव्यजीवोंके हितार्थ उनके पुण्य अतिशय के कारण और भगवानकी वचन वर्गणाके उदयसे खिरती है। इसे सर्व सभाजन अपनी अपनी भाषाओंमें समझ लेते हैं। इस