________________ 84] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** यहांसे चयकर जम्बूद्वीपके पूर्वविदेहके कक्षावती देशकी क्षेमपुरी नगरीमें धनंजय राजाकी प्रभावती पट्टरानीसे प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ। सो पुण्य फलसे चक्रवर्ती पदको प्राप्त हो षट्खण्डका राज्य कर अनेक सुख भोगे। पुनः जिनरात्रि व्रत किया और अन्त समय क्षेमंकर स्वामीके निकट दीक्षा लेकर दुर्द्धर तप किया। सो अंतमें आयु पूर्ण कर बारहवें स्वर्गमें सूर्यप्रभ देव हुआ। वहांसे चयकर भरतक्षेत्रके श्वेतछत्रपुर नामके राजा नन्दिवर्द्धनकी वीरमती रानीके श्रीनंदन नामका पुत्र हुआ, सो प्रियंकर नाम राजकन्यासे ब्याह कर सानन्द रहने लगा. पुनः जिनरात्रि व्रत किया और कितनेक काल राज्य कर अंतमें पुत्रको राज्य देकर आपने महाव्रत धारण किया और सोलह कारण भावना भायीं जिससे तीर्थंकर नाम कर्मप्रकृतिका बन्ध कर प्राण त्याग सोलहवें पुष्पोत्तर विमानमें देव हुआ। फिर वहांसे चयकर भरतक्षेत्रके आर्यखण्ड मगध देशकी कुण्डलपुर नगरीके राजा सिद्धार्थकी रानी त्रिशलादेवीके पंचकल्याणकोंके धारी श्री वर्द्धमान नामके चौवीसके तीर्थंकर हुए। प्रभुका जन्म चैत्र सुदी त्रयोदशीको हुआ था। आपने कुमार अवस्थामें ही मार्गशीर्ष वदी दशमीको दीक्षा धारण कर ली और बारह वर्ष घोर तपश्चरण करनेके अनन्तर वैशाख सुदी 10 को केवलज्ञान प्राप्त किया और अनेक देशोंमें विहारकर धर्मोपदेश दे भव्य जीवोंको कल्याणका उपदेश दिया। ___ पश्चात् कार्तिक कृष्णा अमावस्याको प्रातःकाल पावापुरीके वनसे शेष अघाति कर्मोको भी नाश करके परम पद (मोक्ष) को प्राप्त किया। इस प्रकार इस व्रतके प्रभावसे सिंह भी अनेक उत्तम भव लेकर अंतिम तीर्थंकर हो लोकपूज्य सिद्धपदको पास हुआ,