________________ 32] ** *** *** *** *** ** **** ** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह *** ** ** *** (7) यह जीव स्व स्वरूप भूला हुआ इस घृणित देहमें ममत्य करके इसके पोषणार्थ नाना प्रकारके पाप करता है, तो भी यह शरीर स्थिर नहीं रहता, दिनोंदिन सेवा और सम्हाल करते करते क्षीण होता जाता है और एक दिन आयुकी स्थिति पूर्ण होते ही छोड़ देता है, सो ऐसे नाशवन्त और धृणित : शरीरमें ममत्व (राग) न करके वास्तविक सच्चे सुखकी प्राप्तिके अर्थ इसको लगाना (उत्सर्ग करना) चाहिये ताकी इसका जो जीवके साथ अनंतानन्त वार संयोग तथा वियोग हुआ करता हैं, सो फिर ऐसा वियोग हो कि फिर कभी भी संयोग न हो सके अर्थात् मोक्षपदको प्राप्ति हो जावे। इसमें यही सार है, क्योंकि स्वर्ग नर्क या पशु पर्यायमें जो सम्यक् और उत्तम तपश्चरण पूर्ण हो ही नहीं सकता है, इसलिये यही मनुष्य जन्ममें श्रेष्ठ अवसर प्राप्त हुआ है ऐसा समझकर अपनी शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंका विचार करने अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवक्त शय्याशन और कायक्लेश ये छः बाह्य और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छ: अभ्यन्तर, इस प्रकार बारह तपोंमें प्रवृत्ति करना सो सातवी शक्तितस्तप नामकी भावना कहलाती हैं। (8) जीव मात्रके कल्याण करनेवाले सम्यक् धर्मकी प्रवृत्ति धर्मात्माओंसे होती हैं और धर्मात्माओंसे सर्वोत्तम सम्यक्रत्नत्रयके धारी परम दिगम्बर साधु है, इसलिए साधु वर्गो पर आये हुए उपसर्गोको यथासम्भव दूर करना सो साधु समाधि नामकी भावना है। (9) साधुसमूह तथा अन्य साधर्मीजनोंके शरीरमें किसी प्रकारकी रोगादिक व्याधि आ जानेसे उनसे परिणामों में शिथिलता व प्रमाद आ जाना संभव है इसलिये साधर्मी (साधु