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खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जन-इतिहास *
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निर्वाणकी छठवीं शताब्दीमें मथुरामें दीर्घदर्शी स्कन्दिलाचार्यकी अध्यक्षतामें एक बड़ी सभा हुई, जिसमें उन्होंने तो अनेकान्तवादके अनुसार दोनों पक्षोंको ठीक बताया, पर उसी समयसे दोनों समाज अर्थात् श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रत्यक्ष रूपमें विभक्त हो गई।
दिगम्बर संप्रदायमें भी एकसे एक बड़े विद्वान् व त्यागी मुनि आदि हुये । जैसे-भद्रबाहु स्वामी निमित्तज्ञानके धारक हुए। उनके शिष्य धरसेन हुए, जिन्होंने कई ग्रन्थ लिखे । वि० सं० ७३५ के करीब द्राविड़ देशमें 'दक्षिण मथुरा' नामकी एक नगरी थी, जिसको आजकल 'मदुरा' कहते हैं, उसका राजा श्रीराजमल्ल था । उसका प्रधान मन्त्री श्रीचामुण्डराय भी एक पक्का जैन था। इनके समयमें श्रीनेमिचन्द्र स्वामी हुये, जिन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे। वे एक धुरंधर विद्वान् थे । आपके उपदेश से राजाने १५०००० दीनारोंके गाँव श्रीगोमट्टस्वामीके मन्दिर की सेवा आदिकेलिये प्रदान किये थे । श्रीनेमिचन्द्राचार्यने गोमट्टसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार आदि अनेक परमादरणीय सिद्धान्त ग्रन्थोंको रचा है। श्रीअभयनन्दिजी, श्रीवीरनन्दिजी श्रीइन्द्रनन्दिजी और कनकनन्दिजी आदि उस समय बड़े बड़े प्राचार्य हुए। श्रीअभयनन्दिजीके रचे हुए बृहज्जनेन्द्र व्याकरण, गोमट्टसार टीका, कर्मप्रकृतिरहस्य श्रादि अनेक ग्रन्थ इस समय उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त और भी अनेक विद्वान् हुये।