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खण्ड] * भगवान् महावीरके बादका जैन-इतिहास * ५६ और हमें ऐहलौकिक शान्ति के साथ पारलौकिक सुखकी प्राप्ति हो, तो हमें चाहिये कि हम हठवादिताको छोड़कर महावीर भगवान् के सच्चे अनुयायी बनें। जब तक हमारे हृदयमें स्वार्थ, घृणा, राग-द्वेष और बन्धु-विद्रोहके स्थानपर परमार्थ, प्रेम, वन्धुत्व और सहानुभूतिकी भावनाएँ आदि न होंगी; जबतक हम जड़ केलिये चेतनका और छिलकेकेलिये मिंगीका अपमान करते रहेंगे; तबतक जैनधर्मका, जैनसमाजका और अपना लौकिक या पारलौकिक हित न कर सकेंगे।
दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि आज जब हम भगवान् महावीरके अनुयायी जैनसमाजकी स्थितिको देखते हैं और उनके द्वारा होने वाले कर्मोंका अवलोकन करते हैं तो उसमें एक भयङ्कर विपरीतता मालूम होती है। अफसोस ! कहाँ तो भगवान् महावीरका उदार, महान और दिव्य उपदेश और कहाँ वर्तमान जैनसमाज ! जिन महावीरका उपदेश आकाश से भी अधिक उदार और सागरसे भी अधिक गम्भीर था, उन्हींका अनुयायी जैनसमाज आज कितनी संकीर्णताके दलदल में फंसा हुआ है !
जिन वीर प्रभुने प्राणीमात्रसे मैत्रीभाव, उदार हृदय व प्रेम रखनेका उदार सन्देश दिया था; उन्हींकी सन्तान आज आपस में इस बुरी प्रकार राग-द्वेष व लड़-झगड़कर दुनियाँके परदेसे अपने अस्तित्वको समेटनेकी तैयारियाँ कर रही है। जिस प्रकार