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* जेल में मेरा जैनाभ्यास #
[ प्रथम
यद्यपि आत्माके अमरत्वकी प्राप्तिकेलिये और संसार के सर्व बन्धनों से मुक्त होनेकेलिये अहिंसाका पूर्ण रूपसे पालन करना आवश्यक है, तथापि संसारनिवासी तमाम मनुष्यों को इतनी योग्यता और इतनी शक्ति नहीं कि वे अहिंसाका पूर्ण रूप से पालन कर सकें, इस कारण शास्त्रकारों अथवा तत्त्वज्ञोंने गृहस्थों के लिये न्यूनाधिक हिंसा के मार्ग बता दिये हैं ।
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अहिंसा के भेदोंकी तरह उनके अधिकारियों के भी जुदे-जुदे भेद कर दिये हैं । जो गृहस्थ अथवा संसारी मनुष्य पूर्ण रीति से अहिंसाका पालन नहीं कर सकते, उन्हें श्रावक, उपासक, अणुव्रती, देशव्रती इत्यादि नामोंसे सम्बोधित किया गया है ।
उपरोक्त चार प्रकारकी हिंसाओं में गृहस्थ केवल संकल्पो-हिंसा का त्यागी होता है। इसके अलावा वह भाव हिंसा और स्थूल-हिंसा का भी त्यागी हो सकता है। शेष हिंसाएँ गृहस्थको क्षम्य होती हैं । गृह कार्य में होनेवाली आरम्भी-हिंसा, व्यापार में होने वाली व्यावहारिक हिंसा तथा आत्म-रक्षा के निमित्त होनेवाली विरोधी हिंसा अगर एक श्रावक त्यागपूर्वक, ध्यानपूर्वक और अपनी मनोभावनाओं को शुद्ध रखता हुआ करता है तो वह बहुत सूक्ष्म रूप में दोषका भागी होता है ।
जो प्राणी अहिंसाका पूर्ण अर्थात् सूक्ष्म रीति से पालन करता है, उसको जैनशास्त्रों में मुनि, भिक्षु, श्रमण अथवा संयमी शब्दोंसे सम्बोधित किया गया है। ऐसे लोग संसारके सब कामों