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* अनेकान्तवाद *
इन तीनों गुणों में से जो मूल वस्तु सदा स्थित रहती है, उसे जैन शास्त्रमें 'द्रव्य' कहा है, एवं जिसकी उत्पत्ति और नाश होता है, उसको 'पर्याय' कहते हैं। द्रव्यकी अपेक्षासे हर एक वस्तु नित्य है और पर्यायसे नित्य है । इस प्रकार प्रत्येक पदार्थको न एकान्तनित्य और न एकान्त-अनित्य, बल्कि नित्यानित्य रूपसे मानना ही अनेकान्तवाद है ।
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इसके सिवाय एक वस्तु के प्रति सत् और असत् का सम्बन्ध भी ध्यान में रखना चाहिये । ऊपर लिखा जा चुका है कि एक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे सत् है और दूसरी वस्तुके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे वही असत् है | जसे वर्षा ऋतु में इन्दौर के अन्तर्गत मिट्टीका बना हुआ लाल घड़ा है । यह द्रव्यसे मिट्टीका है - मृत्तिका रूप है, जल रूप नहीं | क्षेत्र से इन्दौरका है, दूसरे क्षेत्रोंका नहीं । कालसे वर्षा ऋतुका है, दूसरे समयका नहीं। और भावसे लालवर्ण वाला है, दूसरे वर्णका नहीं। संक्षेप में प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप ही से 'आस्ति' कही जा सकती है। दूसरेके स्वरूपसे वह नास्ति ही कहलायगी ।
कोई कहता है कि संसार में जीव है, कोई कहता है कि जीव नहीं है कोई जीवको एक रूप और कोई अनेक रूप कहता है; कोई जीवको नित्य और कोई नित्य कहता है । इस प्रकार अनेक नय हैं। कोई किसीसे नहीं मिलते, परस्पर विरुद्ध हैं और जो सब नयों को साधता है, वह 'स्याद्वाद' है ।