Book Title: Jail me Mera Jainabhayasa
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 433
________________ खण्ड ] * परमेष्ठी अधिकार # ३६६ अर्थात् प्रत्येक रूपी और अरूपी वस्तुका यथार्थ और सत्य स्वरूपके जाननेवाले होते हैं; वज्रवृषभनाराचसंहनन अर्थात् संसारमें समस्त प्राणियों से बलिष्ठ और मजबूत शरीर वाले होते हैं; समचतुरससंस्थान अर्थात् शरीरका बड़ा सुन्दर और उच्च वनाव होता है; चौतीस अतिशय अर्थात् जहाँ भगवान् की समवसरण सभाकी रचना होती हैं, वहाँ अशोकवृक्ष, रत्नजड़ित महा प्रभाशाली सिंहासन, भामण्डल, छत्र, चमर, देवकृत अचिन्त पुष्पोंकी वर्षा आदि अनेक वैभवयुक्त वस्तुएँ दिखाई देती हैं; जहाँ भगवान् विराजते हैं या पधारते हैं, वहाँ मनोज्ञ ऋतु, मनोज्ञ रास्ता, चित्त जलकी वर्षा और हर प्रकारकी शान्ति श्रादि रहती है। भगवान् अर्धमागधी भाषा में व्याख्यान देते हैं, जो हर प्रकारके प्राणी आसानीसे समझ सकते हैं; भगवान् के समक्ष या समवसरण में प्राणियों के बैरभाव मिट जाते हैं; भगवान् के शरीर में मैल आदि नहीं लगता है; भगवान के आहार-विहारको चर्म- चतु वाला नहीं देख सकता है: भगवान्‌के अतिशयसे उनके चारों ओर बीसों कोस तक हर प्रकारकी शान्ति व प्रसन्नता छाई रहती है और अनेक अतिशय होते हैं; भगवान्‌की वाणी बड़ी सुन्दर मनोज्ञ और इस प्रकारकी होती है कि प्रत्येक प्राणी सरलता से समझ जाता है; भगवान् के वचन परस्पर विरोध- रहित होते हैं; सदा देश-काल- भावानुसार बोलते हैं; थोड़ा बोलते हैं और बहुत अर्थ निकलता है; अगर किसी श्रोता के शंका हो तो भगवान्

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