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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
द्वितीय
शाखाएँ और निकली हैं। प्रत्येक उप-शाखापर सात-सात द्वीप हैं। इस प्रकार ८४७=५६ 'अन्तीप' हैं। इन सब अन्तीपोंमें जो 'युगलिये' मनुष्य रहते हैं, वे भी कोई कर्म नहीं करते हैं। कल्प-वृक्ष इन मनुष्योंकी इच्छाओंको पूरा किया करते हैं।
इस प्रकार कर्मभूमि और अकर्मभूमिके कुल क्षेत्र १५+३०+५६=१०१ होते हैं। इनमें रहनेवाले मनुष्य परस्परम विशेष स्वभावके रखनेवाले हैं। इस प्रकार एक-सौ एक भेद मनुष्योंके हुए । इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्रके भेद करनेसे कुल दो-सौ दो भेद होते हैं।
इन उक्त एक-सी एक क्षेत्रोत्पन्न मनुष्योंक विष्टा, पेशाव, खकार, नाकका मैल, वमन, पित्त, पीप, रक्त, वीय, वीय के सूके पुद्गल, मृतक शरीर, स्त्री-पुरुपकं संयोग, नगरके नालेनालियों आदि अशुचि स्थानों में अन्तमुहर्त में असंख्य समृद्रिम (सूक्ष्म मनुष्य ) उत्पन्न होते हैं। चूंकि एक-सी एक प्रकार के मनुष्य होते हैं। इस कारगा ये संमृच्छिम जीव भी एक-सौ एक प्रकारके होते हैं । ये अपर्याप्त अवस्थाहीमें कालको प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य के कुल तीन-सौ तीन भेद हैं।
(४) देवताओंके भेद इस प्रकार हैं:
१-भवनपतिदेव दस जातिके, २-परमाधामीदेव पन्द्रह जातिक, ३-वाणव्यन्तरदेव सोलह जातिके, ४-ज्योतिषीदेव दस जातिके, ५-किल्विपीदेव तीन जातिके, ६-बारह