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* जेल में मेरा जैनाभ्यास #
[द्वितीय
'संक्रमण' है । इस प्रकार एक कर्म प्रकृतिका दूसरी सजातीय कर्म-प्रकृति रूप बन जाना भी संक्रमण कहाता है । जैसे मतिज्ञानावरणीय कर्मका श्रुतज्ञानावरणीय कर्म रूपमें बदल जाना या श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका मतिज्ञानावरणीय कर्म रूपमें बदल जाना । क्योंकि यह दोनों प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्मका भेद होने से आपस में सजातीय हैं ।
६ - बँधे हुये कर्मका तप ध्यान आदि साधनों के द्वारा आत्मा से अलग हो जाना 'निर्जरा' कहलाती है ।
कर्मोंका स्थितिकाल-प्रमाण
१ - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन कर्मों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस क्रोड़ाक्रोड़ सागरकी और अबाधकाल तीन हजार वर्षका ।
२ - वेदनीय कर्म:
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( १ ) सातावेदनीय जघन्य दो मास ( 'इरियावद्दी' क्रियाश्रित ), उत्कृष्ट पन्द्रह क्रोड़ाक्रोड़ सागरकी और अबाधाकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट डेढ़ हजार वर्षका ।
(२) असातावेदनीय कर्म:
असातावेदनीय जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीस क्रोड़ाक्रोड़ सागर और बाधाकाल तीन हजार वर्षका ।