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* अहिंसाका स्वरूप *
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से दूर और अलिप्त रहते हैं। उनका कर्तव्य केवल आत्मकल्याण करना तथा मुमुक्षुजनोंको आत्म-कल्याणका मार्ग बताना रहता है। उनकी आत्मा विषय-विकार तथा कषाय-भावसे बिलकुल परे रहती है; उनकी दृष्टि में जगत्के तमाम प्राणी
आत्मवत् गोचर होते हैं; अपने और परायेका द्वेषभाव उनके हृदयमेंसे नष्ट हो जाता है; उनके मन, वचन, और काय, तीनों एक रूप हो जाते हैं; जो पुरुप इस प्रकारको अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं, वे 'महाव्रती' कहलाते हैं। वे पूर्ण-अहिंसाको पालन करने में समर्थ होते हैं। ऐसे महाव्रतियोंकेलिये स्वार्थ हिंसा और परार्थ-हिमा, दोनों वर्जनीय हैं । वे सूक्ष्म तथा स्थूल, दोनों प्रकार की अहिंसासे मुक्त रहते हैं।
यहाँ एक प्रश्न यह हो सकता है कि इस प्रकारके महाव्रतियोसे खाने-पीने, उठने-बैठने, चलने-फिरने व सोने आदिमें कभी-कभी हिंसा अवश्य हो जाती होगी। फिर वे हिंसाजन्य पापोंसे बच कैसे सकते हैं ? ___ उत्तर-ये महाव्रती सदा ध्यानपूर्वक, देखभालकर अपनी सारी क्रिया किया करते हैं। इससे स्थूल-हिंसाकी कोई सम्भावना नहीं रहती। ___ हाँ, यद्यपि अनिवार्य सूक्ष्म-जोव-हिंसा उक्त क्रियाओं में हुआ करती है, तथापि उनकी मन, वचन और कायकी कतई कोई भावना नहीं रहती। इस कारण वह दोषो नहीं होते हैं। इसके