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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[प्रथम
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अर्थात् मन, वचन तथा कर्मसे सर्वदा किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारका कष्ट नहीं पहुंचाना, इसीको महर्षियोंने अहिंसा' कहा है । इसी विषयको लेकर स्वयं भगवान महावीर कहते हैं:___ 'सब प्राणियों को आयु प्रिय है। सब सुखके अभिलापी हैं; दुःख सबके प्रतिकूल है: वध सबको अप्रिय है; सब जीनेकी इच्छा रखते हैं। इससे किसीको मारना अथवा कष्ट पहुँचाना न चाहिये।'
जैनधर्मके तमाम आचार-विचार अहिंसाकी नीवपर रचे गये हैं। वैसे तो भारनवर्पके ब्राह्मण, बौद्ध आदि सभी प्रसिद्ध धर्म अहिमाको सर्वश्रेष्ट धर्म मानते हैं। इन धर्मों के प्रायः सभी महापुरुषोंने अहिंसाकं महत्त्व तथा उसकी उच्चताका बतलाया है, पर इस तत्वकी जितनी विस्तृत, जितनी सूक्ष्म और जितनी गहन मीमांसा जैनधर्म में की गई है, उतनी शायद दूसरे किसी भी धर्ममें नहीं की गई है। जैनधर्मके प्रवर्तकोंने अहिंसा तत्व को उसकी चरम सीमापर पहुँचा दिया है। ___ वे केवल अहिंसाकी इतनी विस्तृत मीमांसा करके ही चुप नहीं हो गये हैं, बल्कि उसको आचरण करके उसे व्यावहारिक रूप देकर भी उन्होंने बतला दिया है। दूसरे धर्मोमें अहिंसाका तत्त्व केवल कायिक रूप बनकर ही समाप्त होगया है, पर जैनधर्म का अहिंसा तत्त्व उससे बहुत आगे वाचिक और मानसिक होकर आत्मिक रूप तक चला गया है।