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आत्मकल्याण की धुन हो तो इस वृत्ति से अपने आपको मार्ग मिलेगा। विषयकषायो मे बहे जाएँ, अपने जीवन को यों ही गवां दे, यह तो कोई कल्याण की बात नहीं है। ऐसे जीवन में और पशु जीवन में अन्तर कुछ नही है। वे भी सभी विषयो की साधना करते है और यहाँ भी विषयो की साधना की तो कौन सा लाभ लूट लिया? ये तो सभी मिट जायेगे, और संस्कार खोटा बनाया तो इसके फल मे आगे भी दुःख होगा। इससे मोह मेंटे, रागद्वेष में न बहें, अपने आत्मा की कुछ दृष्टि बनाएँ, निष्कपट प्रभुभक्ति करें और सभी जीवों में एक समान दृष्टि का उद्देश्य करे तो यह उन्नति का साधन है।
विपन्दवपदावते पदिकेवाति वाहाते।
यावत्तावन्दवन्त्यन्याः विपदाः प्रचुराः पुरा ||12|| __संसार में विपदावो का तांता - यह संसार एक चक्र लगाने वाले यंत्र की तरह है। जैसे रहट में घटिया चक्र लगाती रहती है, उसमें एक घटी भर गयी, वह रीत गयी, फिर दूसरी घटी आयी वह रीत गई। जिस तरह उसी घटीयंत्र में एक घटी भरते है तो थोड़ी देर में रीत जाती है अथवा पैर से चलने वाले यन्त्रं में जिसमें दो घटिका लगी है, यह रीत जाती है तो दूसरी रीतने के लिये आ जाती है। ऐसे ही इस दुनिया में एक विपत्ति को मेटकर कुछ राहत ली तो दूसरी विपदा आ जाती है। यह बात संसार के सभी जीवों पर घटित हो जाती है। आप विपत्तियों का निपटारा हो ही नही पाता है। सोचते है कि धन कमाने लगें तो फिर कोई विपदा न रहेगी अथवा एक संतान हुआ, दूसरा तीसरा हुआ, लो उनमें से एक मर गया। एक न एक विपदा सबको लगी रहती है।
विपदा का आधार कल्पना - भैया! लगी कुछ नही रहती है विपदा कल्पना से एक न एक विपदा मान लेते है। है किसी को कुछ नही। अभी ही बतावो कहाँ क्या दुःख है? न मानो किसी को कोई तो कुछ दुःख ही नही रहा। जैसा पदार्थ है वैसा समझ लो फिर कोई क्लेश ही नही रहा। जिस सम्पदा को आप अपना समझते है वही अब दूसरे के पास है तो उसे आप नही मानते है कि यह मेरा हे। जैसे दूसरे के पास रहने वाला वैभव भी अपना नही है ऐसे ही अपने पास रहने वाला वैभव भी अपना नही है। ऐसा मान लो तो कोई क्लेश कल्पना में भिन्न-भिन्न गुनगुनाहट है, वही विपदा है। तो जैसे रहट यंत्र के एक घड़े के खाली हो जाने पर दूसरा घड़ा सामने आ जाता है, ठीक इसी तरह इस संसार में एक विपदा दूर होती है तो दूसरी विपदा सामने आ जाती है। इस तरह देखिये तो इस संसार मे कभी साता है तो कभी असाता है। एक क्षण भी यह जीव इन कल्पनावों से मुक्त नही होता है, न असातावो से मुक्त होता है।
अन्तर्दाह - अहो, कितनी कठिन चाह दाह की भीषण ज्वालाएँ इस संसार में बस रही है, जल रहा है खुद यह विषादवन्हि में, किन्तु पक्षपात की बुद्वि को नहीं छोड़ता है। ये मरे है, इनके लिए तो तन, मन, धन, वचन सब हाजिर है। यह मोह का अंधकार सब जीवो को सता रहा है, विकल होता हुआ उनमें ही लिप्त हो रहा है। जिनके सम्बधं से क्लेश होता हे उस ही क्लेश को मिटाने के लिए उनमें ही लिप्त हो रहा है। यही है एक जाल ।
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