Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ माया की वाञछा अनर्थ का मूल इस मायामय जगत में मायामय लोगो को निरखकर मायामय यश की मायामय चाह करना यह अनर्थ का मूल है। एक आनन्दधा अपने आपके परमार्थ ब्रह्रास्वरूप का दर्शन करे, आनन्द वही से निकलकर आ रहा है, विषय सुख भी जब भोगा जाता है वहाँ भी आनन्द विषयो से नही आ रहा है किन्तु आनन्द का धाम यह स्वंय आत्मा है और उस विकृत अवस्था में भी इस ही से सुख के रूप में यह आनन्द प्रकट हो रहा है। जो बात जहाँ नही है । वहाँ से कैसे प्रकट हो सकती है? जैसे यह कहना मिथ्या है कि मैं तुम पर प्रेम करता हूं, अरे मुझ में प्रेम पर्याय उत्पन्न होती है वह मेरे मे ही होती है, मेरे से बाहर किसी दूसरे जीव पर वह प्रेमपर्याय नही उतर सकती है। जैसे यह कहना मिथ्या है ऐसे ही यह कहना भी मिथ्या है कि मैने भोग भोगा, मैंने अमुक पदार्थ का सेवन किया। यह मैं न किसी पर को कर सकता हूँ और न कोई भोग भोग सकता हूँ, किन्तु केवल अपने आप में अपने ज्ञानादिक गुणों का परिणमन ही कर सकता हूँ। चाहे मिथ्याविपरीत परिणमन करूँ और चाहे स्वभाव के अनुरूप परिणमन करूँ, पर मै अपने आपको करने और भोगने के सिवाय और कुछ नही करता हूं और न भोगता हूं। यह वस्तु की स्वंतत्रता जब ज्ञान में उतर जाती है तो मोह दूर हो जाता है। - मोहविनाश का उपाय भेदविज्ञान – भैया ! प्रभु की भक्ति से प्रभु से भिक्षा मांगने से या अन्य प्रकार के तप करने से मोह नही गलता । मोह लगने का मूल मंत्र तो भेदविज्ञान है। ये भक्ति, तप, व्रत संयम कहाँ तक काम देत है, इसको भी सुनिये। यह जीव अनादि से विषय वासना में जुटा हुआ है। इसका उपयोग विषयवासना में न रहे और उसमें इतनी पात्रता आए कि यह ज्ञानस्वरूप का दर्शन कर सकेगा, उसके लिए पूजन, भक्ति, तप, संयम, व्रत ये सब व्यवहार धर्म है, पर मोह के विनाश की समस्या तो केवल भेदविज्ञान से ही सुलझती है, क्योकि किसी पदार्थ में कर्तृत्व और भोक्तृत्व की बुद्वि मानने से ही तो अज्ञानरूप यह मोह हुआ । परपदार्थ की भिन्नता न जान सके और उसे एक दूसरे का स्वामी मान ले, इसी मानने का ही तो नाम मोह है । जैसे कोई पुरूष अपने परिजनो में मोह करता है तो उसका अर्थ ही यह हे कि इन परिजनो को आपा माना है, आत्मा समझा है। यह आत्मीयता का जो भ्रम है इसके मिट जाने का ही नाम मोह का विनाश है। यह ज्ञान से ही मिटेगा । भगवान की पूजा करते हुए में भी हम अपने ज्ञान पर बल दे तो मोह मिटेगा, पर अन्य उपायो से यह मोह नही मिट सकता है । सद्विवेक जब विवेक बनेगा तभी तो यह समझेगा कि यह हेय है और यह उपादेय है। जब तक विवेक नही जगता, तब तक मोह रागद्वेष की संतति चलती ही रहती है और उससे नरक, तिर्यञच, मनुष्य, देव इन चारों गतियों में जन्म मरण करना ही पड़ता हे। वैसे कहाँ दुःख है, शारीरिक मानसिक कहाँ क्लेश है? इससे तो थोड़े ही खोटे मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा, मकोड़ा इनको देखकर जाना जा सकता है कि संसार में कैसे क्लेश होते है, इन - 208

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231