Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 211
________________ है, इनसे भी अलग होकर धर्म मिलता है। ठीक है यह, किन्तु समर्थ स्थिति में ही प्रवृत्ति निवृत्ति का व्यवहार छूटता है। अपने भीतर के तत्व को न जान पाये और बहारों प्रवृतियो के ही कोई मार्ग निरखे तो उससे केवल धोखा ही होगा। विवेक की दशा - भैया! किसी ज्ञानी की बाहरी वृत्ति को निरखकर ज्ञानमर्म से अनभिज्ञ पुरूष बाहृ प्रवृत्ति को करके कही संतोष का मार्ग न पा लेगा। मुक्ति का मार्ग, शान्ति का मार्ग नो अंतरंग ज्ञानप्रकाश में है। और उसको थोड़े ही शब्दो में कहना चाहें तो यह कहलें कि समस्त परसे न्यारा केवल ज्ञानमात्र यह मैं आत्मतत्व हूं| जो ज्ञान और आनन्द रससे परिपूर्ण है ऐसा ज्ञान करें, श्रद्वान करें और ऐसा ही अपना संकल्प बना ले कि मुझे अब इस आनन्दघाम से हटकर कही बाहर में नही लगना है। कदाचित् लगना भी पड़े तो उसकी स्थिति सेठ के मुनीम जैसी बने। जैसे मुनीम सारे कामों मे लग रहा है। रोकड़ सम्हाले, बैंक का हिसाब रक्खे, और कोई ग्राहक आये उसे हिसाब बताना पड़े तो यह भी कह देता है कि मेरा तुम पर इतना गया, तुम्हारा हम पर इतना आया, इतने सब व्यवहार करके भी मुनीम की श्रद्वा में दोष नही है। वह जान रहा है कि मेरा यह वर्तमान परिस्थिति में करने का काम है। कर रहे है किन्तु मेरा कुछ नही है। तो कुछ करना भी पड़े और अपनी ही और झुकाव रहे तो अपनी रक्षा है। कोई किसी भी रक्षा न कर सकेगा। मोह, राग द्वेष में अकल्याण - भैया ! किसी में मोह रागद्वेष करने का परिणाम भला नही है। किसमें मोह करते हो? कौन तुम्हारा कुछ सुधार कर देगा? यदि कोई शाश्वत आनन्द पहुंचा दे तो मोह करो, किन्तु कौन ऐसा कर सकता है? आनन्दमय करने की बात तो दूर रहो, यह दृश्यमान समागम तो केवल क्लेश का ही कारण है। यह परिजनों का जो समागम हुआ है वह प्रकट भिन्न और असार है, किसमें राग करना? कोई पुरूष मेरा विरोधी नही है ऐसा निर्णय करके यह भी भावना बनाओ कि मुझे किसी में द्वेष भी नही करना है। जो भी पुरूष जो भी चेष्टा करता है उसके भी दिल है, उसमें भी अपने प्रयोजन की चाह है, उसके भी कषायो की वेदना है, वह अपने कषाय की वेदना को शान्त करने का उद्यम कर रहा है, वह अपने अभीष्ट स्वार्थ को सिद्ध करने का उद्योग कर रहा है। इसके लगा हो अपना स्वार्थ और वहाँ जंचे बाधा, तो इसने कल्पना करली कि उसने मुझे कष्ट दिया, इसने नुकसान पहुंचाया। उस बेचारे ने अपने आप में अपना काम करने के अतिरिक्त कुछ भी तो नही किया, किसे द्वेषी माना जाय? इस जगत में कोई मेरा विराधी नही है, इस दृष्टि से जरा निहार तो लो। किसी को विरोधी मान- मानकर कोई काम बना पाता हो तो बतलावों। अरे विरोध को मिटाना है तो उसका मिटाना अत्यन्त सुगम है। विरोधी न मानकर उसे सद्व्यवहारी मान लो, विरोध एकदम खत्म हो जायगा, अर्थात् जब विराध भाव नही रहा तो जिसका विराधी नाम रखा था वह मित्र बन जायगा। 211

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