Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 224
________________ उनको पुद्गल कहते है। ये रूप, रस, गधं, स्पश, गुण के पिंड रूप जो इन्द्रिय द्वारा ज्ञान में आते है वे सब पुद्गल है। अचेतन अमूर्त द्रव्यो की प्रसिद्वि - धर्मद्रव्य एक ही पदार्थ है। जो ईथर, सूक्ष्म समस्त आकाश में नही किन्तु केवल लोकाकाश में व्याप्त है वह जीव वे पुद्गल के चलने के समय निमित्तभूत होता है। जैसे मछली को चलाने में जल निमित्तामात्र है। जल मछली को जबरदस्ती नही चलाता किन्तु जल के अभाव में मछली नही चल पाती है। मछली के चलाने में जल भी निमित्त है, इसी प्रकार व्याप्त यह धर्मद्रव्य हम आपको जबरदस्ती नही चलाता, किन्तु हम आप जब चलने का यत्न करते है तो धर्मद्रव्य एक निमित्तरूप होता है। इसी प्रकार चलकर ठहरने में निमित्तभूत अधर्मद्रव्य है। वह भी एक है। आकाश के बारे में यद्यपि वह अमूर्त है, इस धर्म आदिक की तरह अरूपी है फिर भी लोगो के दिमाग में आकाश के सम्बन्ध में बड़ी जानकारी बनी रहती है। यही ही तो है आकाश जो पोल है और हाथ फैलाकर बता देते है। है वह भी अमूर्त, न हाथ से बताया जा सकता और न दिखाया जा सकता और इस लोक में एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य स्थित है जिस पर स्थित हुए समस्त द्रव्यो की वर्तना में जो कारण है। जीवगत क्षोभ व उसके विनाश के लिए निज ध्रव तत्व के आश्रय की आवश्यकता - इन सब द्रव्यो में से केवल जीव और पुद्गल ही विभावरूप परिणम सकते है। हम आप जीवो को क्षोभ लगे है तो इस पुद्गल के सम्बन्ध से धन, सम्पदा, घर, मकान, शरीर, ये कुटुम्बी जन इनको देखकर न कहना, ये तो निमित्तभूत कार्माण पुद्गल के नोकर्म है, आश्रयधूत है। जो यह स दृश्यमान है उसको देखकर इन सबके झंझट कल्पना में आते है, जो रात दिन परेशान किए रहते है इस जीव को। तो जीव का हित इसमें है कि वह झंझटो से मुक्त हो। झंझटो से मुक्त तब ही हो सकता है जब इसको कोई ध्रुव आशय मिले। जितने भी ये बाहा पदार्थ है जिनका यह मोही जीव आश्रय किए रहता है वे सब अध्रुव है। जैसे चलते हुए मुसाफिरको रास्ते में पेड़ मिलते है तो पेड़ निकलते जाते है, उन पेड़ो से मुसाफिश्र को मोहब्बत नही होती है, उनको देखकर निकल जाता है, ऐसे ही यात्रा करते हुए हम आप सब जीवों को ये समागम थोड़ी देर को मिलते है, निकलते जाते है, इन अध्रुव पदार्थो के प्रीति करने में हित नही है। जिनको अपने ध्रुव तत्व का परिचय नही है वे आश्रय लेंगे अध्रुव का। देहदेवालयस्थ देव के शुद्ध परिचय की शक्यता – इन पुद्गलो से भिन्न मै हूं, ऐसा समझने के लिए स्वरूप जानना होगा, यह मै जीव चेतन हूं और ये पुद्गल अचेतन है, इनसे मै न्यारा हूं। शरीर में बँधा होकर भी यह जीव अपने स्वरूप को पहिचान ले, इसमें क्या कुछ अनुमान प्रमाण भी हो सकता है? हाँ है। जब हम आप किसी एंकात में बैठ जाते है तो वहाँ केवल एक प्रकार की कल्पना-कल्पना में ही उपयोग बसा रहता है। उस समय 224

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