Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 206
________________ और एक दाव में 10 ) लगा दिए, समय की बात कि वह जीत गया, अब 20 ) की भोजन सामग्री लेकर सबको खिलाया। तीसरे दिन अंधा लड़का 10 ) लेकर भोजन सामग्री लेने के लिए चला। उसे रास्ते में एक पत्थर में ठोकर लग गयी। सो सोचा कि इसे निकाल फेके, नही तो किसी दूसरे के लग जायगा । सो निकालने लगा। वह पत्थर काफी गहरा गड़ा था सो उसके खोदने में विलंब लग गया। जब वह पत्थर खोद डालना तो उसमें एक अशर्फिया का हंडा मिला। उन अशर्फियो से उसने भोजन सामग्री खरीदी और सब अशर्फियो को लेकर घर पहुंचा। चौथे दिन उस सेठ ने अपने लड़के पुजारी को 10) देकर भोजन सामग्री लाने के लिए भेजा। उसे नगर में मिला एक मन्दिर । उसेन क्या किया कि एक चाँदी का कटोरा खरीदा, घी खरीदा और रूई की बाती बनाई। आरती धरकर मंदिर में भजन करने लगा । भजन करते-करते जब शाम के चार बज गय तो मंदिर का अधिष्ठाता देव सोचता है कि इसके घर में भूखे पड़े है, इसमें तो धर्म की अप्रभावना होगी, सो उस लड़के का रूप बनाकर बहुत-सी भोजन सामग्री गाड़ियों में लादकर सेठ के यहाँ ले गया । सबने खूब भोजन किया और सारे नगर के लोगो को खिलाया। अब रात के 7-8 बजे वह लड़का सोचता है कि अब घर चलना चाहिए । पहुंचा घर रोनी सी सूरत लेकर कहा पिता जी मैने 10) की सामग्री लेकर मंदिर में चढ़ा दिया। पिताजी हमसे अपराध हुआ, आज तो सब लोग भूखे रह गए होगें। तो पिता जी बोले- बेटा यह तुम क्या कह रहे हो? तुम तो इतना सामान लाए कि सारे नगर के लोगो को खिलाया और खुद खाया । तो पुजारी ने अपना सारा वृतान्त सुनाया। मै तो मंदिर में आरती कर रहा था। तो फिर मैने सोचा कि इस कटोरे को भी कौन ले जाय सो उसे भी छोड़कर चला आया । चार-पांच दिन व्यतीत होने पर एकांत स्थान में बड़े लड़के को बुलाकर सेठ पूछता है- कहो भाई यह तो बताओ कि तुम्हारी तकदीर कितनी है? तो वह बोला कि मेरी तकदीर एक रूपये की है, और जुवारी की तकदीर है उससे दस गुना और अंधे की तकदीर हजार गुना और पुजारी के गुनो का तो कोई हिसाब ही नही है। जिसकी देवता तक भी मदद करें उसकी तकदीर का क्या गुना निकाला जा सकता है? जब उस बड़े लड़के की समझ में आया, और बोला- पिता जी मै व्यर्थ ही कर्तृत्व बुद्वि का अंहकार कर रहा था। मैं नही समझता था कि सब का भाग्य अपने-अपने साथ है। अब मैं अलग न होऊगाँ । परकी अपनायत में बिडम्बना -- यह जीव भ्रमवश कर्तृत्व बुद्धि का अंहकार करता है । इस जीव का तो अकर्त्ता स्वरूप है, केवल ज्ञाताद्रष्टा ज्ञानानन्दका पुञच चित्स्वभाव मात्र अपने आप विश्वास बनावो । भ्रमवश यह जिस भव में गया उस ही पर्यायरूप यह अपने को मान रहा है। पशुहुआ तो पशु माना, पक्षी हुआ तो पक्षी माना। जैसे कि आजकल हम आप मनुष्य है तो ऐसी श्रद्वा बैठाए है कि हम मनुष्य है, इंसान है। बहुत बड़ी उदारता दिखाई 206

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