Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 112
________________ दशा है। पर्याय और द्रव्य इन दोनो से ही तदात्मक यह समस्त विश्व है। कोई पदार्थ ऐसा नही है कि वह केवल द्रव्य ही हो और उसमें परिणति कुछ न होती हो और न कोई पर्याय ऐसा है कि केवल पर्याय ही है उसका आधारभूत कोई-द्रव्य नही है, इसी कारण यद्यपि आत्मा की नाना स्थितियाँ होती है, ज्ञानादिक गुणो का परिणमन भी चलता है और व्यञजनपर्याये भी नाना चल रही है तिस पर भी मै सर्वत्र अकेला हूं। व्यावहारिक प्रसंगो में भी एकाकित्व – व्यावहारिक प्रसंगो में भी मैं अकेला हूं| सुखी दुःखी भी मै अकेला ही होता हूँ। जिस रूप भी परिणत होता हूं यह मैं अकेला ही। किन्ही भी बाहा पदार्थो का ध्यान करके किसी विभावरूप परिणम जाऊँ, वहाँ पर भी यह मैं अकेला ही परिणत होता हूं, दूसरा कोई मेरे साथ परिणत नही होता। मैं सर्वत्र एक हूं। जो पुरूष अपने को एक नही निरख पाते है किन्तु मैं अनेक रूप हूँ, दूसरा कोई मेरे साथ परिणत नहीं होता। मैं सर्वत्र एक हूं| जो पुरूष अपने को एक नही निरख पाते है किन्तु मै अनेक रूप हूँ, मेरे अनेक है, मुझे अनेक वस्तु शरण है, अमुक पदार्थ के होने से मेरी रक्षा है - इस प्रकार के विकल्पो से अपने एकत्व को भूलकर किन्ही बाहा पदार्थो को लक्ष्य में लेकर मोहविकार रूप परिणमन में लगता है वह पुरूष संसार में ही भटकता है। एक अपने चैतन्यस्वरूप एकत्व को त्याग कर इसको उपयोग में न लेकर अब तक संसार में रूला हूँ। __ श्रद्वान कला से आनन्द या क्लेश की सृष्टि - जिस भव में गया उस ही भव में जो मिला उसमें ही ममता की, जो पर्याय मिली उस ही रूप अपने को माना। गाय, बैल, भैसा हुआ तो वहाँ उस ही रूप अपनी प्रतीति रखी। देव नारकी हुआ तो वहाँ उस ही रूप अपनी प्रतीति रखी। मनुष्य भवमें तो है ही, यहाँ ही देख लो, हम अपने निरन्तर मनुष्यता की प्रतीति रखते है मै मनुष्य भी नही हूं, किन्तु एक अमूर्त ज्ञानानन्दस्वरूप चेतन पदार्थ हूँ। ऐसी प्रतीति में कब-कब रहते है ? कभी नही। यदि ज्ञानानन्दस्वरूप की प्रतीति हो तो फिर आकुलता नही रह सकती है, आकुलता कहाँ है ? निराकुल शुद्व ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मतत्वको निरखें तो वहाँ आकुलता का नाम नही है। वह अपने स्वरूप से सतृ है, समस्त परभावो से मुक्त है। यह मै आत्मा निर्मम हूं। यहाँ शुद्व ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्व को निरखा जा रहा है, इसमें मिथ्यात्व, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कुछ भी परभाव नही है। स्वरसतः निरखा जा रहा है। विभावो के सम्बन्ध के विवरण में एक दृष्टांत - यद्यपि वर्तमान में ये समस्त विभाव इस आत्मा के ही परिणमन है। रागी कौन हो रहा है ? यह जीव ही तो, परन्तु यह राग जीव में नही है, जीव के स्वभाव में राग नही है राग हो गया है। किसका बताएँ। जैसे जब दर्पण को देखते है तो उसमें सुख की छाया झलकती है, अब वहाँ यह बतलावो कि यह मुख के आकार का जो परिणमन है वह परिणमन क्या मुख का है अथवा दर्पण का है। दर्पण में जो मुंह का आकार बना है वह आकार यदि देखने वाले पुरूष का होता तो उसके 112

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