Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

View full book text
Previous | Next

Page 186
________________ है, इस प्रकारका कोई भी विकल्प वहाँ नही मच रहा है, और इसी कारण वह अपने देहको भी नही जान रहा है। अनात्मतत्वके परिज्ञानकी अनपेक्षा - जिस पुरूषको भेदविज्ञानका उपयोग हो रहा हे वह जिससे अपनेको भिन्न करता है उस हेय तत्वको फिर भी जानता ता है भेदविज्ञान अध्यात्ममार्गमें पहुंचनेकी सीढ़ी है जो लाकव्यवहार में चतुर होते है वे यह कहते है कि अपने खिलाफ यदि किसी ने कुछ कह दिया या कुछ छपा दिया उसका यदि कुछ प्रत्युत्तर दे कोई अर्थ यह है कि उसने उस निन्दा करनेका महत्व आंका और लोग यह समझेंगे कि कोई बात है तब तो इसे उत्तर देना पड़ा। बुद्विमान पुरूष उसकी और दृष्टि भी नही करते है। यह मै शरीर से न्यारा हूं, ऐसा सोचते हुए यदि शरीर तक ज्ञान आए, अथवा कोई परद्रव्य ज्ञानमें आए तो यह उन्नतिकी चीज नहीं है। मै शरीर में न्यारासे हूं। जिससे न्यारा तुम अपनेको सोचते हो उनकी वखत तो हमने पहिले कर ली है। यह अध्यात्म मार्गमें चलाने वाले के प्राकपदवीकी बात कही जा रही है। होता सबके ऐसा है जो शान्तिके मार्गमें बढ़ते है। भेदविज्ञान उनके अनिवार्य है, लेकिन भेदविज्ञान की करते रहना, जपते रहना इतना ही कर्तव्य है क्या? नही। इससे आगे अभेद उपासनाका कर्तव्य है जहाँ यह ही प्रतीत न हो रहा हो, विकल्प ही न मचता हो कि यह देह है, ये कर्म है, ये विभाव है, इनसे मुझे न्यारा होना चाहिए। उपयोगमें परवस्तुका अमूल्य – कोई धर्मात्मा श्रावक और श्राविका थे। दोनों किसी गाँवको जा रहे थे। आगे पुरूष था, पीछे स्त्री थी। पुरूष आध फर्लाग आगे चल रहा था, उसे रास्तेमं धूल भरी सड़कपर अशर्फियोका एक ढ़ेर दीखा, किसीकी गिर गई होगी। उसे देखकर वह पुरूष यो सोचता है कि इसे धूलसे ढ़क दे। यदि स्त्री को यह दिख जायगा तो, कही लालच न आ जाय, सो उस अशर्फियोको धूलसे ढांकने लगा। इतने मे स्त्री आ गयी, बोली यह क्या कर रहे हो? तो पुरूष बोला कि मैं इन अशर्फियोको धुलसे ढांक रहा हूं| क्यो? इसलिए कि कही तुम्हारे चित्तमे इनको देखकर लालच न आ जाय? स्त्री बोली - अरे तुम भी बड़ी मूढ़ताका काम कर रहे हो, इस धूलपर धूल क्यो डाल रहे हो। उस स्त्रीके चित्तमें वह धन धूल था, उस पुरूषके उपयोगमें अशर्फी है और स्त्रीके चित्तमे धूल है तो इसमें तो स्त्री का वैराग्य बड़ा हुआ। विकल्पसे अभीष्ट की हानि - भेदविज्ञान में, जिससे अपने आपको पृथक करनेकी बात कही जा रही है, वहाँ दो चीजें सामने है, किन्तु अध्यात्मयोगीको यह गरज नही है कि मरी निगाहमें किसी भी रूपमें विराधी तत्व याने परतत्व बना रहे। इस योगीके देहकी बात तो दूर जाने दो, जिस ज्ञानमय तत्वका अनुभवकर रहा है उस तत्वके सम्बधमें भी यह क्या है, कैसा है, कहाँसे आया है, इतना भी विकल्प नही कर रहा है। विकल्प करनेसे आनन्दमें कमी आ जाती है। जैसे आपने कोई बढ़िया मिठाई खायी, मान लो हलुवा खाया ते उसके 186

Loading...

Page Navigation
1 ... 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231