Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 187
________________ सम्बंध में यदि यह ख्याल आए कि यह ऐसे बना है, इतना घी पड़ा है, इतना मैदा पड़ा है, ऐसी बातोका ख्याल भी करता जाय और खाता भी जाय तो उसके खानेंमे आनन्दमें कमी हो जायगी। बड़ी मेहनत से बनाया है तो चुपचाप एक तान होकर उसका स्वाद ले, बाते मत करे, बातें करने से उसके आनन्दमें कमी हो जायगी। बड़े योगाभ्याससे, जीवनभरके ज्ञानार्जन की साधनासे, पुरूषोकी निष्कपट सेवासे यह तत्वज्ञान इसने पाया है और आज यह निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्व अनुभवमें आ रहा है, आने दो, अब उसके सम्बंधमें कुछ विकल्प भी न करो, विकल्प करोगे तो आता हुआ यह अनुभव हट जायगा । विकल्पो का उत्तरोत्तर शमन यह योगी अपने अध्यात्मयोग में परायण होता हुआ, किसी भी प्रकारका विकल्प न करता हुआ, अपने देहको भी नही जान रहा है। इस जीवके कल्याणमार्गमें पहिले तो औपचारिक व्यवहारका आलम्बन होता है। जब बचपन था तो यह मां के साथ मंदिरमें आकर जैसे माँ सिर झुका दे वैसे ही सिर झुका देता था, उसे तब कुछ भी बोध न था। जब कुछ बड़ा हुआ, अक्षराभ्यास किया, सत्संग किया, ज्ञानकी बात सुननेमें आयी, अब कुछ— कुछ जानतत्वकी और बढ़ने लगा। अब इसे वस्तुस्वरूपका प्रतिबोध हुआ, भेदविज्ञान जगा । इसके पश्चात् जब इस ध्याता योगीके अपने आपमें अभेद ज्ञानानुभूति होती है तब उसके विकल्प समाप्त होते है। इससे पहिले विकल्प हुआ करते थे, जैसे-जैसे उसकी उन्नती होती गई विकल्पोका रूपक भी बदलता गया, पर समस्त विकल्प शान्त हुए तो इस ज्ञानतत्वमें शान्त हुए । ज्ञानभावकी अभिरसमयता व परभावभिन्नता जानने वाला यह ज्ञान इस ही जानने वाले ज्ञानके स्वरूपका ज्ञान करने लगे तब दूसरे वस्तुके छोड़ने को अवकाश कहाँ रहा? ज्ञान ही जानने वाला और ज्ञान ही जाननेमें आ रहा है तब वहाँ तीसरेकी चर्चा कहाँ रही? ऐसी ज्ञानानुभूतिमें किसी भी प्रकारका विकल्प उदित नही होता है, वह तो निज शुद्व आनन्द रसका पान किया करता है। वहाँ ऐसे स्वभावका अनुभव हो रहा है जिसको कहाँसे शुरू करके बताएँ? शुरू बात किसी भी तत्वकी होगी बतानेमें, तो परका नाम लेकर ही हो सकेगा। जिस ज्ञानतत्वके अनुभवमं सम्यग्दर्शन प्रकट होता वह तत्व परभावोसे भिन्न है, परपदार्थो से और परपदार्थो के निमित्तसे जायमान रागादिक भावोसे भिन्न है। आत्मतत्वकी परिपूर्णता भैया ! यहाँ उस अनुभवमें आए हुए ज्ञान तत्वकी बात कही जा रही है, परसे भिन्न पर भावोसे भिन्न है, इसमें यह न समझना कि जितना जो कुछ हम टूटा फूटा ज्ञान किया करते है उन ज्ञानो को तो मना नही किया, परपदार्थको मना किया और रागादिक भावोंको मना किया। अरे वह आत्मतत्व परिपूर्ण है जिसका अनुभव किया जाना है। यह हमारा ज्ञान तो अधूरा है, यह नही है वह तत्व, जिसका अध्यात्मयोगीके अनुभव हो रहा है। 187

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