Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 200
________________ करनी पड़ती है, ठीक है, पर सच्चा ज्ञान तो ज्ञान साध्य बात है। कुछ भी समागम न मेरे साथ आया है और न आगे जायगा, और जब तक भी यह साथ है तब तक भी मेरे से न्यारा है, पर है, इन सबका मुझ में अत्यन्ताभाव है। ये पर है, जो पर है, पराया है उससे हमारा क्या हित हो सकता है? वह तो दुःख का ही निमित्त बनेगा। उत्तम समागम का उपयोग - आज हम आपने बहुत अच्छी स्थिति पायी है मनुष्य हुए, श्रावक कुल मिला, जहाँ अहिंसामय धर्म का सदाचार का ही उपदेश है, वातावरण है। जितने भी हम आपके इस शासन में जो भी पर्व आते है, जो भी विधि-विघान होते है वे अहिसापूर्ण और बड़ी पवित्रता को रखते हुए होते है। परम्परा भी कितनी विशुद्ध है? शास्त्र स्वाध्याय की भी शुद्ध परम्परा है। ग्रन्थ भी कितने निर्दोष है, जिनमें रागद्वेष मोह के त्याग को ही उपदेश भरा है, और वह मोह का त्याग एक वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञानपर अवलम्बित है, ऐसा स्वरूप का निर्णय भी इस स्याद्वाद शैली में किया हुआ मिलता है। कितनी उत्कृष्ट बातें हम आपको प्राप्त है। इतनी अच्छी स्थिति में आकर भी परपदार्थो के मोह के राग के ही स्वप्न देखा करें तो अपने हृदय से पूछ लो कि मनुष्य बनकर कौनसी ऐसी अलौकिक चीज पायी, जिससे हम यह कह सकें कि हमने मनुष्य जन्म को सफल किया। सफलता तो उसे कहते है जिसके बाद ऊँची स्थिति मिले। मनुष्य होने के बाद कीड़ा मकोड़ा हो गए, वृक्ष पतंगे बन गए तो मनुष्य जन्म पाने की सफलता कैसे कही जा सकती है? निजहित के बिना परहित कैसा - भैया ! अपने स्वार्थ की सिद्वि प्रत्येक जीव चाहता है। स्वरूप ही ऐसा है कि प्रत्येक पदार्थ अपना ही अर्थ कर सकता है। जिसमें अपने आत्मा का हित हो, जो भविष्य में सदा काम आए, ऐसी कोई बात सिद्ध कर ले उससे ही जीवन में सफलता है। यदि हम परमार्थ पद्धति से अपना प्रयोजन साध लें तो अनेको का उपकार आपके निमित्त से स्वतः बनता रहेगा और जब तक हम अपने आपके सदाचार सम्यग्ज्ञान स्वावलम्बन को तजकर केवल एक बड़प्पन के लिए परके उपकार की हम एक डींग मारें तो समझ लीजिए कि वहाँ पर का उपकार भी असम्भव है और अपना भी उपकार असम्भव है। कोई पुरूष यह माने कि मैं धर्म की प्रभावना करूँ, लोगो की दृष्टि में यह बात बैठ जाय कि इसका धर्म बड़ा पवित्र है। मै उपदेश करूँ उपदेश कराऊँ, और विधिविधान से प्रभावना करूँ, और स्वयं के लिए कुछ नही, वही मोह वही रागद्वेष, वही अंतः अवगुण, वे सब बने रहें, किन्तु दूसरो मे धर्म की प्रभावना हो, ऐसे ही दूसरे तीसरे सोच ले। 100 हो तो 100 भी सोच ले, तो प्रत्येक पुरूष ने 99 को धर्म प्रभावना करने के लिए धर्म बताने के लिए अथक परिश्रम किया, किन्तु वे 100 के 100 ही रंच भी नही बढ़ सके धर्म की और, न प्रभावना हुई । यदि उनमें 5 भी सत्पुरूष ऐसे निकले कि अपना उपकार और सम्यग्ज्ञान में भव बनाएँ तो पांच का तो उपकार हुआ, और उन पांच के अंतरंग की बात दूसरो के 200

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