Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

View full book text
Previous | Next

Page 199
________________ हितरूप है ऐसी भावना रक्खे। तो इन कर्तव्यो के प्रसाद से नियम से अलौकिक तत्व और आनन्द प्रकट होगा । परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखं । अत एव महात्मानस्तन्निमितं कृतोद्यमाः । । 45 || दुख और सुख का हेतु - परपदार्थ पर ही है, इस कारण उससे दुःख होता है और आत्मा—'आत्मा ही है अर्थात् अपना अपना ही है, इस कारण उससे सुख होता है लोक में भी व्यामोही जन कहते हे कि अपना सो अपना ही है, उसका ही भरोसा है, उसका ही विश्वास है और जो पराया है सो पराया ही है, न उसका भरोसा है, न उससे हित की आशा ही है। आतमहित के पंथ में यह कहा जा रहा है कि आत्मा का जो आत्मीय तत्व है, जो इसके निजी सत्ता की बात है वह तो स्वयं है, उससे तो सुख हो सकता है, और सहज स्वभाव को त्यागकर अपने स्वरूप का विस्मरण करके जो अन्य पर में आपको बसाया जाता है और जो परभाव उत्पन्न होते है? वे पर है, उनसे हित की आशा नही है । अपनी स्थिति का विचार भैया ! हम आप सब जीव कब से है, इसका अनुमान तो करो। लोक में जो भी पदाथ्र है उनमें ऐसा कुछ नही है कि वे पहिले कुछ ने थे और बाद मे हो गए हो। ऐसा कुछ भी उदाहरण न मिलेगा जो पहिले कुछ भी न रहा हो और बाद मे हो गया हो। यो ही अपने बारे में विचारो, जिसमें मै मै की अन्तर्ध्वनि होती है, जिसका मै कहा जा रहा है। ऐसा कोई यह पदार्थ चूँकि समझ रहा है, ज्ञान कर रहा है इसलिए ज्ञानमय ही होगा। यह ज्ञानमात्र मै तत्व स्वयं से बना हूँ। मै कब से हूँ? अनादि से हूँ स्वतः सिद्व हूँ, तो उसका अर्थ ही यह निकला कि सदैव से हूँ ऐसे अनादि से हम और आप है, इन दृश्यमान पर्यायो से मै विविक्त हूँ। खुद भी समझ रहे है कि 40-50 वर्ष से यह पर्याय है, पर इसके पहले मैं था या न था- इस पर विचार कीजिए। ऐसा तो नही हो सकता कि इस मनुष्य भव से पहिले मैं शून्य था या अविकारी था, क्योकि शुद्ध होता तो कोई कारण नही है कि यह आज अशुद्व रहता । यदि था शुद्ध अनादि से तो शुद्ध रूप ही तो होऊगाँ, फिर कैसे आज अशुद्ध हो गया? — आखो देखा निर्णय जैसे हम मनुष्यो को और मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवो को देखते है और इस ही प्रकार के अन्य भी अनेक जीव जो आंखो दिखने में नही आए किन्तु परोक्ष से आज भी किसी पर को जान लेते है, ये सब अनादिकाल से ऐसी ही चतुर्गति योनियों में भ्रमण करते आए है, अनन्त भव धारण किए, छोडा, फिर धारण किया। किसी भी भव का समागम आज नही है और यह भी निर्णय हे कि इस भव का समागम भी आपके पास न रहेगा। आँखो दिखी भी बात है। जो भी मरण करेंगे तो आज जो कुछ उनके पास समागम है क्या वह साथ देगा? अथवा यहाँ कुछ सर्वस्व है क्या अपना ? कितना बड़ा अज्ञान अंधकार छाया है कि इन समागमो का यथार्थस्वरूप नही जान सकते है। गृहस्थ - 199

Loading...

Page Navigation
1 ... 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231