Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 189
________________ यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रति। यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति ।।43।। उपयोगानुसारिणी वासना - जो जीव जहाँ रहता है उसकी वही प्रीति हो जाती है और जहाँ प्रीजि हो जाती है वहाँ ही वह रमता है फिर वह अपने रम्यापदसे अतिरिक्त अन्यत्र कही नही जाता है। आत्मामें एक चारित्रगुण है। वस्तुतः आत्मामें गुण भेद है नही, किन्तु आत्मा यथार्थ जैसा है उसका प्रतिबोध करने के लिए जो कुछ विशेषताएँ कही जाती है उनको ही भेद कहा करते है। वैसे तो किसी पदार्थका नाम तक भी नही है। किसीका नाम लेकर बतावो, जो नाम लोगे वह किसी विशेषताका प्रतिपादन करने वाला होगा। वस्तुके यथार्थ परिपूर्ण स्वरूपकी अवक्तव्यता - भैया ! शुद्ध नाम किसीका है ही नही। व्यावहारिक चीजोंका नाम लेकर बतावो आप कहेगे चौकी। चौकी नाम है ही नही। जिसमें चार कोने होते है उसे चौकी कहते है यो इसकी विशेषता बतायी है, चौकी नाम नही है। घड़ा जो यंत्रं में मशीनमें घड़ा जाय उसका नाम घड़ा है। शुद्ध नाम नही है। शुद्ध नामके मायने यह है कि उसमें विशेषका वर्णन करने वाला मर्म न हो। चटाई - चट आई सो चटाई। यह भी उसके गुणका नाम है, उसका नाम नही है। सब विशेषतावोके शब्द है। दरी-देरसे आए तो दरी यह भी उसके गुणका नाम है उसका नाम नही है। किवार - किसीको वारे अर्थात् रोक दे उसका नाम किवार। यह भी शुद्ध नाम नही क्षत - जिसको खुब पीटा जाय उसका नाम क्षत है, यह भी शुद्ध नाम नही है। जीव - जो प्राणो से जीवे सो जीव। यह भी शुद्ध नाम कहाँ रहा? आत्मा - जो निरन्तर जानता रहे उसका नाम है आत्मा। कहाँ रहा उसका नाम विशेषता बतायी है। ब्रहा - जो अपने गुणो को बढ़ाने की और रहा करे उसका नाम ब्रहा है। वस्तुकी अभेदरूपता - वस्तुका गुणभेद नही है। प्रत्येक पदार्थ जिस स्वरूपका है उस ही स्वरूप है, लेकिन प्रतिबोध किया कराया जा सकता है। उसका प्रतिबोध व्यवहारसे, भेदवादसे ही किया जा सकता है। व्यवहार ही अर्थ भेद है। जो किसी चीजका भेदकर दे उसका नाम व्यवहार है। तो आत्मा एकस्वभावी हे, पर उसकी विशेषताएँ जब बतायी जाती है तो कहा जाता है कि यह जानता है इसमें ज्ञानगुण है। यह कही न कही रमता है, यह चारित्रगुण है। जीवमें यह प्रकृति पड़ी है कि वह किसी न किसी और रमा करे। सिद्व हो, परमात्मा हो, योगी हो, श्रवाकहो, कीड़ा मकोड़ा हो, जो भी चेतन है उसमें यह परिणति है कि कही न कही रमा करे। अब जहाँ औपाधिकता लगी है वहाँ परभावमें लगेगा। जहाँ निरूपाधिता प्रकट होती है वहाँ शुद्व स्वभाव में रमेगा, पर रमनेकी इसमें प्रकृति पड़ी है। बहिर्मुखता का संकट - यह जीव अपने उपयोग से जहाँ रहता हुआ ठहरता है उसका उस ही में प्रेम हो जाता है। इस जीवपर सबसे बड़ी विपदा है बहिर्मुखताकी। यह जीव अपने आनन्दधाम निज स्वरूपमें विश्राम न लेकर बाहा परतत्वोमें, परपदार्थोमें जो रूचि 189

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