Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 184
________________ विषयोकी अरूचि व स्वसंवेदन - ज्यो – ज्यो यह ज्ञानप्रकाशमात्र आत्मतत्व अपने उपयोग में समाता जाता है त्यो त्यो स्थिति होती है कि ये सुलभ भी विषय उसको रूचिकर नही होते है, और विषयो का अरूचिकर होना और ज्ञानप्रकाशका बढ़ना - इन दोना में होड़ लग जाती है। यह वैराग्य भी इस ज्ञानसे आगे-आगे बढ़ता है और यह ज्ञान वैराग्यके आगे-आगे बढ़ता है। इस अभीष्ट होड़के कारण इस योगी के उपयोग में यह सारा जगत इन्द्रजालकी तरह शांत हो जाता है। ये केवल एक आत्मलाभकी इच्छा रहती है, अन्यत्र उसे पछतावा होता है, ऐसी लगन जिसे लगी हो मोक्षमार्ग उसे मिलता है। केवल बातोसे गपोडोसे शान्ति तो नही मिल सकती है। कोई एक बाबू साहब माना बम्बई जा रहे थे। तो पड़ौसी सेठानी, बहुवे आ आकर बाबूजीसे कहती है कि हमारे मुत्राको एक खेलनेका जहाज ला देना, कोई कहती है कि हमारे मुत्राको खेलने की रेलगाड़ी ला देना। बहुतो ने बहुत बातें कही। एक गरीब बुढ़िया आयी दो पैसे लेकर। बाबूजी को पैसे देकर बोली कि दो पैसाका मेरे मुन्ने को खेलने का मिट्टी का खिलौना ला देना। तो बाबू जी कहते है कि बुढ़िया माँ मुन्ना तेरा ही खिलौना खेलेगा, और तो सब गप्पें करके चली गयी। तो ऐसे ही जो शान्ति का मार्ग है उस मार्ग में गुप्त रहकर कुछ बढ़ता जाय तो उसको ही शान्ति प्राप्ति होगी, केवल बातोसे तो नही। चित्तमें कीर्ति और यशकी वाञछा हो, बड़ा धनी होनेकी वाञछा हो, अचेतन असार तत्वो मे उपयोग रम रहा हो वहाँ शान्ति का दर्शन नही हो सकता है। अन्तस्तत्वके लाभकी स्पृहा - यह योगी केवल एक आत्मालाभमें ही स्पृहा रखता है, यह एकांत आत्मतत्को चाहता है और बाहामें एकांत स्थानको चाहता है। यहाँ कुछ भी बाहा प्रयोग क्रियाकाण्ड बोलचाल आना जाना कुछ भी नही चाहता है। उसने अपनें उपयोग में आत्मतत्वको स्थिर किया है, ऐसे योगीकी कहानी आज इस श्लोक में कही जा रही है कि वे योगी अंतरंग में क्या किया करते है? ज्ञानी की कृतिकी जिज्ञासा - यहाँ जीवोंको करने करनेकी आदत पड़ी है इसलिए यह ज्ञानीमें भी करनेका ज्ञान करना चाहता है कि ये योगी क्या किया करते है इसका समाधान करनेसे पहिले थोड़ा यह बतायें कि यह अध्यात्मयोगी संत जो इस तत्वके अभ्यासमें उद्यत हुआ है इस योगाभासमें प्राक् पदवीमें क्या-क्या निर्णय अपने समयामे बनाया था? जिस आत्मतत्वकी उसे लगन लगी है वह आत्मतत्व क्या है? वह आत्मतत्व रोगद्वेष आदिक वासनावो से रहित केवल जाननहार रहनेरूप जो ज्ञानप्रकाश है यह आत्मतत्व है। यह ज्ञान प्रकाशरूप आत्मतत्व निर्विकल्प निराकुल निर्वाध है जिसमें कोई प्रकारका संकट नही है ऐसा शुद्ध प्रकाश है। यह प्रकाश इस आत्मामें ही अभिन्न रूपसे प्रकट हुआ है। इसका स्वामी कोई दूसरा नही है और न इसका प्रकाश किसी दूसरेके अघीन है। यह तत्व इस आत्मामें ही प्रकट हुआ, ऐसे उस ज्ञानामृतका बहुत-बहुत उपयोग 184

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