Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 168
________________ विषयसाधनोकी जलबुबुदसम असारता - भैया ! इस लोकमं रमण करने योग्य क्या है? जो कुछ है वह सब जलके बुबुदेकी तरह चंचल है, विनाशीक है, कुछ ही क्षण बाद मिट जाने वाला है। जैसे जलका बबूला देर तक ठहरे तो उस पर बच्चे लोग बड़े खुश होते है, और शानके साथ किसी बबूलेको अपना मानकर हर्षके साथ कहते है देखो मेरा बबूला अब तक ठहरा है। बरसातके दिन है, जब ऊपर से कमानका पानी गिरता है तो उसमें बबूले पैदा हो जाते है, बच्चे लोग उनमें अपनायत कर लेते है कि यह मेरा बबूला है, कोई लड़का कहता है कि मेरा बबूला है, अब जिसका बबूला अधिक देर तक टिक जाय वह बच्चा उठता है, मेरा बबूला अब तक बना हुआ है। ऐसे ही यह पर्याय, यह जाल यह शरीर बबूलेकी तरह है। इन अज्ञानी बच्चोने अपना-अपना बबूला पकड़ लिया है, यह मेरा बबूला है, यह बबूला कुछ देर तक टिक जाय तो खुश होते है, मेरा बबूला अब तक टिका हुआ है। यो यह योगी पुरूष इन्द्रजालकी तरह समस्त जगतको जान रहा है। यहां किससे प्रीति करे, कौन सहाय है, किसका शरण गहे, जो कुछ भी है वह सब अपने लिए परिणमता है। वस्तुमें अभिन्नषट्कारकता - भैया ! यह लोक अपना ही स्वार्थ साधता है, इसमें गाली देनेकी गुञजायश नही है, किसीको स्वार्थी आदिका कहने की आवश्यकता नही है, वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है कि वह स्वंयसे सम्प्रदान हो सकता है। प्रत्येक पदार्थ स्वय कर्ता है। स्वंय कर्म है, स्वंय करण है और स्वंय ही सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण भी है अर्थात् पदार्थ परिणमता है, यही तो करने वाला हुआ, और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिणमनके द्वारा परणिमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही पणिमनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और जिस रूप परिणमता है वही इसका कर्म हुआ। अपने ही परिण्मनके द्वारा परिणमता है इसलिए यही साधन हुआ और परिणाम करके फल क्या पायगा, किस लिए परिणम रहा है, वह फलभी स्वंय है। किससे परिणमता है, किसमें परिणमता है, सो वह अपादान व अधिकरण भी स्वंय है। पदार्थ के परिणमन का सम्प्रदान – पदार्थके परिणमनेका फल क्या है? वह फल है सत्ता रहना। प्रत्येक पदार्थके परिण्मन का प्रायोजन इतना ही मात्र है और फल इतना ही मिलता है कि उसकी सत्ता बनी रहे, इससे आगे उसका कुछ फल नही है। यह समझदार है जीव इसलिए इसने बेईमानी मचा रक्खी है। जो समझदार नही है वे पदार्थ अब भी अपने ईमान पर टिके हुए है, वे परिणमते है मात्र अपना सत्व रखनेके लिए किन्तु ये विकारी, रागी जीव परिणमते ह तो न जाने कितने प्रयोजनाको बताते है। मै संसारमें यश बढ़ा लूँ, सम्पदा बढ़ा लूँ, अनेक विषय सुखोके साधन छुटा लूँ, कितने ही प्रयोजन बनाते है। भले ही ये कल्पना में कितने ही प्रयोजन बनाएँ किन्तु एक संत पुरूषकी ओर से तो 168

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