Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

View full book text
Previous | Next

Page 172
________________ एकत्व है वहा यह बात न होगी कि जो एक जगह परिणमन है वह दूसरी जगह नही होता। एकत्वमें वही परिणमन सर्वत्र है पर जालमें परिणमनकी एकता नही है, विविधता है, इसी तरह गुण पर्याय का भी जाल देखो- ज्ञान गुण कही पैर पसार रहें है, तो श्रद्वा गुण कही मुख कर रहा है। ये समस्त गुण अपनी-अपनी ढफली बजा रहे है, यह इन्द्रजालका दृश्य, किन्तु एकत्व परिणमन हो तो वहां यह कुछ भी विविधता नही रहती है। जहां रत्नत्रयका एकत्व है वहां तो यह भी पहिचान नही हो पाती कि यह ज्ञानका परिणमन है और यह श्रद्वाका परिणमन है या चारित्र है, वहां तो एक एकत्वका ही अनुभवन है। इन्द्रजालका अवबोध – यदि किसी कारणवश इन्द्रजालकी और रंच भी निगाह आती है। तो ज्ञानियोको संताप हुआ करता है जब तक आत्मको अपने असली स्वरूपका परिचय नही है तब तक ये बाहा पदार्थ भले प्रतीत होते है। जब तक कौवाको यक कोयलाका बच्चा है यह पता नही रहता है तब तक जान लगाकर उसकी सेवा करता है। परिचय पड़ जाय तो उससे हट जाता है। भले ही इस अज्ञानी जीवको ये विषय अच्छे लगते है। पर जब स्वपर भेदविज्ञान करके ज्ञानी बने तो ये विषय इन्द्रजालके खेलकी तरह असार मालूम होते है। मिस्मरेजम वाले लोगोकी टोपी उठाकर जब झाड़ते है तो रूपये खनखनातें हुए गिरते नजर आते है। यदि रूपये यो खनखनाकर गिराते है तो वे सबसे क्यों एक एक आना मांगते है? वह तो एक इन्द्रजालका खेल है। है कुछ नही। ज्ञानियोकी उपेक्षा व उद्यम- ज्ञानी पुरूषो ये इन्द्रियविषय निःसार विनश्वर मालूम होते है। अब आत्मस्वरूपको त्यागकर अन्य पदार्थोकी और उसकी दृष्टि नही जाती है। वह तो आत्मलाभ ही करना चाहता है। जो ज्ञानमें रत पुरूष है वे इन सब इन्द्रजालोको यो निरख रहे है। यह लक्ष्मी कुछ दिनों तक ही ठहरेगी, यह यौवन कुछ दिनों तक ही रहने वाला है, ये भोग बिहलीके समान चंचल है, यह शरीर रोगो को मंदिर है, ऐसा निरखकर ज्ञानी जीव परपदार्थोसे उपेक्षा करते है और ज्ञानानन्दमय अपने आत्मतत्वमें निरत होनेका उद्यम रखते है। इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादरः । निजकार्यवशात्किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम् ।।40 ।। ज्ञानीकी एकान्तसंवासमें वाञछा - जब इस आत्माको अपने झुकावसे और परकी उपेक्षाके साधन से शुद्वज्ञानप्रकाशका अनुभवन हो जाता है उस समयमें जो अद्भुत आनन्द प्रकट होता है उस आनन्दके फलमें उस आनन्दके लिए यह योगी बड़े आदरके साथ एकांत में रहना चाहता है, इच्छा करता है और अपने प्रयोजनवश, धर्मसाधनाके प्रयोजनसे कदाचित् कुछ कहना पड़े तो कह कर शीघ्र ही भूल जाता है। यह स्वानुभव प्राप्त योगियोकी कहानी बतायी जा रही है। धर्ममय यह आत्मा स्वंय है। जो कुछ यह मै हूं उसकी ही बात कही जा रही है। 172

Loading...

Page Navigation
1 ... 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231