Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

View full book text
Previous | Next

Page 180
________________ दृश्यमान है, पिडं है, ये स्वयं अचेतन है। ये मै हूं नहीं, तब फिर किसी को कुछ भी जताने का अभिप्राय वह मिथ्या है। अहंकार व ममकार का दोष व्यामोही जीवो में अहकार और ममकार ये दो दोष बड़े लगे हुए है। जिस पर्याय में यह जीव जाता है उस ही पर्याय को अह रूप से मानने लगता है, मैने किया ऐसा, मैं ऐसा कर दूंगा, मेरा अब यह कार्य-क्रम है। एक तो पर्याय में अहंबुद्धि लगा ली है, यह अहंकार का महादोष इस जीव में लगा हुआ है। दूसरा रोष ममकार का है। किसी भी परपदार्थ को यह मेरा है ऐसा ममत्व परिणाम इस जीव के बना हुआ है। दोनो ही परिणाम मिथ्या है, क्योकि न तो कुछ बाह्रा मै हूं और न कुछ बाह्रा मेरे है। यह संसार इस ही अंहकार और ममकार की प्रेरणा से दुःखी हो रहा है। ज्ञानी पुरूष के किसी भी परपदार्थ में आसक्ति नही होती है। वह किसी भी पर को अपना नही मानता, अपने से पर का कुछ सम्बन्ध नही समझता है। औपाधिक देखो लोक में विचित्र प्रकृति के मनुष्य भी देखे जाते है। कोई मनुष्य तो इतनी कृपणता रखते है कि किसी भी स्थिति में रंच भी उदारता नही दिखा सकते है, चाहे कितना ही धन लुट जाय या कितनी ही आधिव्यधियां उपस्थित हो जाने से यो ही हजारो का धन लुट जाय, पर अपने हाथ से किसी भी धर्मप्रसंग के लिए कुछ देने का साहस नही कर पाते है और कितने ही पुरूष अपनी सम्पत्ति से अत्यन्त उदासीन रहते है, अपनी उदारता किसी भी धार्मिक प्रसंग में बनी रहती है। यह विचित्रता, ये जीव के परिणाम और कर्मो के उदय व क्षयोपशम की याद दिलाते है। इस जीव की कितनी विचित्र प्रकृतियाँ हो गयी है? मूल में जीव में केवल ज्ञाता द्रष्टा रहने की प्रकृति है पर अपनी उस मूल प्रकृति को तोड़कर, परप्रकृतियों से उत्पन्न हुई प्रकृतियो में यह लग गया है और उन प्रकृति परिणामो से दुःखी रहता है, संसार भ्रमण करता है। जो तत्वज्ञानी जीव है वे प्रकृति के जाल को त्यागकर अपनी शुद्ध प्रकृति में जाते है। मैं ज्ञानानन्दस्वरूप हूं, चिदानन्दमात्र हूं ऐसी उनकी दृष्टि रहती है। वे कही भी रागी नही होते है । - मोह की अंधेरी मोह की अंधेरी आना सबसे बड़ी विपत्ति है और अपने आत्मा में ज्ञान का प्रकाश होना सबसे बडी सम्पदा है। इस बाह्रा पृथ्वीकायक सम्पदा को कोई कहाँ तक सम्हालेगा? किसी भी क्षण यह सम्हाल नही पाता है। चीज जैसी आए, आए पर यह जीव किसी भी सम्पदा को सम्हालता हो ऐसी बात नही है । वह तो अपनी कल्पनावों मे ही गुथा रहता है। इस मायामयी जगत अपनी पोजीशन की धुन बनाना यह महाव्यामोह है । अरे अरहंत सिद्ध की तरह निर्मल ज्ञाताद्रष्टा रह सकने योग्य यह आत्मा आज इतने किवट कर्म और शरीर के बन्धन में पड़ा है। इसकी पोजीशन तो यही बिगड़ी हुई है। अब इस झूठमूठ पोजीशन की क्या सम्हाल करना है। पोजीशन की सम्हाल करना हो तो वास्तविक पद्वति से पोजीशन की सम्हाल करने में लग जाइए, यह स्वाथमयी दुनिया तुम्हारा हित न 180


Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231