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कि जैसे अग्नि कभी यह नही कहती कि मुझे ईधन अब न चाहिए, अब मैं तृप्त हो गयी हूं। उसमें तो जितना ही ईधन डालो उतनी ही वह बढ़ती चली जायगी, ऐसे ही ये विषयभोग के साधन है, जितने ही भोगविषयो के साधन मिलते जायेगे उतनी ही तृष्णा बढ़ती चली जायगी ।
गुण ग्रहण की भावना भैया ! सच बात तो यह है कि जब तक होनहार अच्छा नही आने को होता है तब तक इस जीव को ज्ञान भी नही जगता, विवेक नही होता । जिसका होनहार ही खोटा है उसको धर्म की रीति से ज्ञान की बात नही रूचती है। वह तो सर्वत्र दोष ही दोष निरखता रहता है। उसके सर्वत्र दोष ही दोष का ग्रहण होगा । धर्मीजनो में कुछ अच्छी भी बात है, पर इस और दृष्टि नही जाती । धर्म खराब है, कुछ जैनियो का उदाहरण दे दिया, अमुक यों है, अमुक यों है । अरे तुम्हें अमुक से क्या मतलब ? धर्म में जो वस्तुस्वरूप बताया है उस स्वरूप का आचरण करके तुम्ही ठीक बनकर उदाहरण बन जावो। धर्म मानने वाले लोगो के दोष निरखकर कौनसी सिद्धि हो जायगी ? तुम उसके गुण देखो, धर्म में क्या गुण है, धर्म में क्या प्रकाश है, यह सिद्वान्त वस्तुस्वरूप को किस प्रकार कह रहा है, उसको निरखो। जब ध्यान में आयगा अहो, ऐसा स्वतंत्र स्वरूप मेरा है ज्ञानानन्दमात्र, आनन्द जगेगा और समस्त झंझटो का परित्याग हो जायगा, समस्त संकट टल जायेंगे। ये भोग-भव में भोगे है। इन भोगे हुए भोगों में मुझ ज्ञानस्वरूप आत्मा की इच्छा क्यों हो? ऐसी भावना ओर आचरण बनाना चाहिए।
कर्म कर्महिताबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः ।
स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थ को वा न वाञ्छति । । 31 । ।
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कर्म और जीव में अपने - अपने प्रभाव की और झुकाव कर्म कर्मोंके हित की बात करते है और जीव जीव के हित को चाहता है । सो यह बात युक्त ही है कि अपने-अपने को प्रभाव बढ़ाने के लिए कौन पुरूष स्वार्थ को नही चाहता है? इस श्लोक में बताया है कि कर्मों के उदय से होता क्या है? कर्म बँधते है, कर्म कर्मो को ग्रहण करने के लिए स्थान देते है । कर्मों में कर्म बन्धन है। कर्मो से कर्म आगे संतान बढ़ाते चले जाते है। तो इन कर्मों ने कर्मों का कुटुम्ब बनाने की ठानी। और यह जीव, अंतरंग से पूछो इससे कि यह क्या चाहता है? यह अपना हित चाहता है; आनन्द, शान्ति चाहता है। भले ही कोई भ्रम ही जाय और उस भ्रम में सही काम न कर सके, यह बात दूसरी है किन्तु मूल प्रेरणा जीव को जीव के हित की भावना से उठती है। इस जीव ने जीव का हित चाहा और कार्मो ने कर्मो का कुल बढ़ाया सो यह बात लोक में युक्त ही है कि प्रत्येक जीव अपनी अपनी बिरादरी का ध्यान रखता है, कुल को बढ़ाता है। कर्मों ने कर्मो को बढ़ाया, जीव न जीव
का सम्बन्ध चाहा ।
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