Book Title: Ishtopadesh
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala Merath

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Page 161
________________ हो जाती है। ऐसे ही जिनका चित्त कामवासना से भरा है वे स्वंय व्याकुल है औश्र फिर काम का कोई आश्रय मिले, विषय भोग के साधन मिलें और अन्य साधन कर्म जुट जायें तो उनके मन, वचन, काय सब कुत्सित हो जाते है वे महीन–महीने तक के लिए भी आहार आदि का त्याग कर देते है। जो पुरूष अपने आत्मकल्याण के लिए जान-जानकर इन विषयो को परित्याग करते है वे विषय सुखो को कैसे उपादेय मान सकते है ? अहो ! जीवन में एक बार भी यदि समस्त प्रकार के विकल्प त्यागकर, परम विश्राम में रहकर अपने सहज आनन्द निधि का स्वाद आ जाय तो इस जीव के सर्वसंकट मिट जायेगे। आत्महित के लिए जीवन का निर्णय - यह जगत मायारूप एक गोरखधंधा है, भटकाने और भुलाने वाला है। यहाँ यह मोही स्वंय भी कायर है और वातावरण भी उसे दुष्ट मिल जाय, ऐसा खोटा मिल जाय कि यह अपने इन्द्रिय को काबू में ही न रख सके ऐसे प्राणियो को तो बड़ा अनिष्ट ही है। अनादि काल से भूल भटककर इस मनुष्यभव में आये, अब सुन्दर अवसर मिला, प्रतिभा मिली, क्षयोपशम अच्छा है। कर्मो का उदय भी है, आजीविका के साधन भी सबके ठीक है, ऐसे अवसर में अब तृष्णा का परित्याग करके आत्महित के लिए अपना उद्योग करे। जरा विचारो तो, लखपति हो गए तो करोड़पति होने की चाह, करोड़पति हो गए तो अरबपति होने की चाह, यो चाह का कभी अन्त नही आता है। चाह का अन्त ज्ञान में ही आता है। वस्तु के समागम से चाह का अंत नही होता है। जीवन चलाने के लिए तो दो रोटियों का साधन चाहिए और ठंड गर्मी से बचने के लिए दो कपड़े का साधन चाहिए। वस्तुस्वरूप की समझ में चिन्ता का अनवकाश – भैया ! कुछ यह चिन्ता हो सकती है गृहस्थी है इसलिए उसकी सभाल के लिए कुछ तो विशेष चाहिए। वे सब तो अपना-अपना भाग्य लेकर आये है, सो सब उदयानुकूल थोड़े से यत्न से काम हो जाता है और फिर ज्ञान है तो इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि कैसी भी स्थिति हो, हम उसमे भी अपना हिसाब बना सकते है पर जीवन हमारा केवल धर्म के लिए ही है। इतना साहस हो तो विनाशीक इस जीवनसे अविनाशी पदका काम पाया जा सकता है। जो मिट जाने वाली वस्तु है उसका ऐसा उपयोग बन जाय कि न मिट जाने वाली चीज मिले तो इससे बढकर और हिकमत क्या हो सकती है? ज्ञानी पुरूष पंचेन्द्रियके विषय साधनोको सर्वथा हेय समझते है। ये ज्ञानी योगीशवर आत्मस्वरूपके सुगम परिज्ञानी है। जरा सी दृष्टि फेकी कि वह कारणसमयसार उनकी दृष्टिमें समक्ष है। जो ऐसे ज्ञानके अनुभवका निरन्तर स्वाद ले रहे है उनको इन विषयोसे क्या प्रयोजन है? तत्वज्ञकी निष्कामता - जैसे रोगसे प्रेरित रोगी पुरूष रोगका इलाज करता हुआ भी रोगको नही चाहता और इलाजको भी नही चाहता। कोई बीमार पुरूष दवा पीता है तो दवा पीते रहने के लिए नही दवा पीता है, किन्तु दवा न पीना पड़े, इसके लिए दवा पीता 161

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