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विकल्प में फंसा हो या कोई बड़ी हानि का प्रसंग आया हो जिससे चिन्तामग्न हो तो उस काल में वह भोजन ऐसा सरस स्वादिष्ट नही प्रतीत होता है। क्योकि उपयोग दूसरी जगह है। ज्ञानी संत का उपयोग इस सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभव से निर्मल हुआ है, उसे यो सुलभ विषय भी रूचिकर नही होते है। यह बात युक्त ही है कि अधिक आनन्द मिल जाय तो हीन आनन्द की कोई चाह नही करता है।
मोही की अस्थिरता - इस मोही जीव को विषय-साधनो में रमने के कारण शुद्ध आनंद नही मिला है इसलिए किसी भी विषय को भोगकर तृप्त नही हो पाते। तृप्त न होने के कारण किसी अन्य विषय में अपना उपयोग फिर भटकने लगता है। पंचेन्द्रिय के विषय और एक मन का विषय। इन 6 विषयो में से किसी भी एक विषय में ही रत हो जाय, यह भी नही हो पाता है।
मोहोन्मत्त का विषयपरिवर्तन - किसी को यदि स्पर्शन का विषय प्रिय है, काम मैथन का विषय प्रिय है तो फिर रहो न घंटो उसी प्रसंग में, पर कोई रह नही पाता है। अतृप्ति हो जाती है, तब तृप्ति के लिये अन्य विषय खोजने लगता है। किसी को भोजन ही स्वादिष्ट लगा हो तो वह करता ही रहे भोजन, लेकिन नही कर पाता है फिर दूसरे विषय की याद हो जाती है। किसी को कोई मन का विषय रूच रहा है यश, पोजीशन, बड़प्पन रूच यत्न करता है? मोही जीव को कहीं भी तृप्ति का काम ही नही है। अज्ञान हो और वहाँ संतोष आ जाय यह कभी हो नही सकता। संतोष के मार्ग से ही संतोष मिलेगा। जिन अज्ञानी पुरूषों के उपयोग में भेदविज्ञान के प्रताप से यह शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप परमतत्व है उन्हे ये सुलभ विषय भी रूचिकर नही होते है।
विषय साधनों की पराधीनता, विनश्वरता व दुःखमयता - ये विषयभोग प्रथम तो पराधीन है। जिस विषय की चाह की जाती है उस विषय में स्वाधीनता नही है। किन्तु यह आत्मा का आनन्दमयी स्वरूप जिसको हमें ही देखना है, हमारा ही स्वरूप है, जिसके देखने वाले भी हम है, और जिसे देखना है वह भी शाश्वत हममें विराजमान है फिर वहाँ किस बात की आधीनता है? यह आत्महित का कार्य स्वाधीन है। जो स्वाधीन कार्य है उसके झुकाव में विकृति नही रहती है। और जो पराधीन कार्य है उसकी निरन्तर वाञछा बनी रहती है। पराधीन ही रहें इतना ही ऐब नही किन्तु ये नष्ट हो जाते है। ऐसा भी नही है कि ये विषय सदैव बने रहे। ये मायामय है, कुछ ही समय बाद ये नष्ट हो जाते है। पराधीन है और नष्ट हो जाते है। वे रहे आये पराधीन व विनाशीक तो भी मोही यह मान लेगा कि हम तो जब तक है तब तक तो मौज मिल जायगी। सो इतना भी नही है। जितने काल विषयो का समागम है उतने काल भी बीच-बीच में दुःख के ही कारण होते रहते है।
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