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बतावो कि तकुवामें जो टेढ़ थी वह गयी कहाँ? उस तकुवेसे निकलकर कही बाहर गयी है क्या? अथवा वह टेढ़ तकुवामें अब भी धंसी हुई है क्या? न टेढ़ बाहर गयी है, न टेढ़ तकुवेमे घंसी है तो हुआ क्या उसका ? टेढ़ तकुवामें विलीन हो गयी। न यहाँ दूर होनेकी बात कही, न तकुवामें रहने की बात कही और दोनोकी बात कह दी। तो विनाशका अर्थ विलीन भी है पर यह कोमल प्रयोग है।
आत्माकी निरत्ययरूपता - यह चारूवाक विलय शब्द जैसे कोमल प्रयोगको भी राजी नही है, वह मानता है अत्यय। जहाँ अत्यय होता ही नही है, अयसे अतिक्रान्त हो गया, अयसे ही पर्यय शब्द बना है, पर्यय और पर्याय दोनोका एक ही अर्थ है। जैसे मनः पर्यय ज्ञान । तो कही इस परिणमनका नाम पर्यय भी रख दिया है। कही इसका नाम पर्याय भी रख दिया है। आचार्य कहते है कि आत्मा निरत्यय है, उसका अभाव नही होता है विनाश नही होता है। यह द्रव्यरूपसे नित्य है। कुछ भी परिणमन चलो, व्यक्त हो, अव्यक्त हो वह परिणमन जिस स्त्रोतभूत द्रव्यके आधारमें होता है वह द्रव्य शाश्वत रहता है। आत्मा द्रव्य रूपसे नित्य है। यद्यपि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे आत्मा प्रतिक्षण विनाशीक है, फिर भी द्रव्यदृष्टिसे देखो तो शाश्वत वहीका वही है। पर्यायदृष्टिसे देखने पर ही प्रतीत होगा कि प्रत्येक पदार्थ अपने आपमें प्रतिसमय नवीन-नवीन परिणमन करता है, वह नीवन परिणमन पूर्व परिणमन से अत्यन्त विलक्षण नही है अथवा समान हो तो वहाँ यह परिचय नही हो पाता कि इस पदार्थ में कुछ बदल हुई।
पर्यायदृष्टिमें क्षणिक रूपता- परमात्माका केवलज्ञान जैसा शुद्ध परिणमन भी केवलज्ञान भी परमार्थतः प्रतिक्षण नवीन परिणमनसे रहता है, यद्यपि वह अत्यन्त समान है, जो पूर्वसमयमें विषय था केवलज्ञानका वहीका वही उतना का ही उतना अगले-अगले समयमें विषयरहता है फिर भीपरिणमन न्यारा न्यारा है। जैसे बिजलीका बल्ब 15 मिनट तक रोशनी करता रहा और पूरे पावर से बिजली है, उसमें कुछ कमीबेशी नही चल रही है, बिल्कुल एकसा प्रकाश है। इस बल्बने जो एक मिनट पहिले प्रकाशित किया था वही का वही प्रकाश दूसरे मिनट में भी प्रकाशित है फिर भी पहिले मिनटकी बिजली का पुरूषार्थ पहिले मिनट में था, दूसरे मिनट नया पुरूषार्थ है, नई शक्तिका परिणमन है, विषय भले ही समान है किन्तु परिणमनने वाला पदार्थ प्रतिक्षण नवीन-नवीन पर्यायसे परिणमता है। यो पहिले समयकी पर्याय अगले समय में भी नही रहती है, इतना क्षणिक है समस्त विश्व, लेकिन यह पर्यायदृष्टि से क्षणिक है।
विभावपरिणतिकी क्षणिकरूपता - संसारी जीवमें किसी वस्तुविषयक प्रेम हुआ, राग परिणमन हुआ तो जब तक वह राग अन्तर्मुहूर्त तक न चलता रहे, न बनता रहे तब तक हम आपके ज्ञानमें नही आ समता। हम जिस रागका प्रयोग करते है, जिस राग से प्रभावित होते है वह एक समय का राग नही है। कोई भी संसारी प्राणी एक समयके राग से
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