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भोग से अतृप्ति व समय की बरबादी
जब ये भोग प्राप्त हो जाते है तब भोगते भी तृप्ति नही होती है। कोई सा भी भोग आज खूब भोग लो, कल से विकल्प न करना, कोई कर सके ऐसा तो खूब भोग भोगो, पर ये भोग ऐसे बुरे है कि ज्यो भोगो त्यों अतृप्ति होती है। तृप्ति नही होती है। भोग भोगने में भोग नही भोगे गये, यह भोगने वाला खुद भुग गया। भोग का क्या बिगडा ? वह पदार्थ तो जो था सो है । अथवा किसी भी प्रकार का उनमें परिणमन हो वे पुद्गल के विकार है उनका क्या बिगाडा? बिगड़ा तो इस भोगने वाले का। जीवन गया, समय गुजरा, मनुष्यभव खोया, जिस मनुष्यभव में ज्ञान की लौ लगायी जाती तो जरा जानने का हिसाब लगावो, दस दस अक्षर ही रोज सीखते तो साल भर में मान लो। 3।। हजार अक्षर सीख लेते और समझ की उम्र कितनी निकल गयी, मान लो 40 वर्ष निकल गयी तो 40 वर्ष में कितने अक्षर सीखते इसका अंदाज तो लगावो । बड़े-बड़े साधु संत अपनी बड़ी बुद्धि वैभव से जो कुछ उन्होने पाया, सीखा, अनुभव किया उसका निचोड़ लिख गये है, पर उनके इस सारभूत उपदेश को सुनने, बांचने देखने तक की भी हिम्मत नही चलती। क्या किया मनुष्य जन्म पाकर ?
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भोग से अतृप्ति की वृद्धि ये भोग जब भोगे जा रहे हो तो ये असंतोष को ही उत्पन्न करते है। उनके भोगने की फिर बार-बार इच्छा हो जाती है। किसी देहाती पर आपको यदि क्रोध आ रहा हो उसके किसी असद्व्यवहार के कारण, तो उसको बरबाद करने की मन में आती है ना, तो उसको बिल्कुल बरबाद आप कर दे, उसका उपाय तो यह है कि कुछ मिलने लगे तो बस वह अपने जीवन को बरबाद कर डालेगा। उसे बरबाद ही करना है तो यह है उपाय । उसे चखा दो कोई भोग तो वह विषयसाधनो में बरबाद हो जायेगा। लोग विषय भोगकर अपनी बड़ी चतुराई मानते है, मैने ऐसा भोगा, ऐसा खाया बहुत रसीली चीजें खाने वाले व्यक्ति अंत में बहुत बुरी तरह से रोगी हो सकते है । और रूखा सूखा संतोष भर खाने वाले पुरूष कहो चंगें रह सकते है ।
भोग में व्यग्रता - भैया ! काहे का भोग भोगा, कौन सी चतुराई पा ली ? ये भोग असन्तोष को ही उत्पन्न करते है । भोग भोगते समय शन्ति नही रहती है। कोई सा भी भोग हो, वह शान्ति के साथ नही भोगा जाता है। चाहे खाने का भोग हो, चाहे सूघंने का भोग हो, चाहे किसी रमणीक वस्तु को देखने को भोग हो, चाहे कोई राग रागिनी भरे शब्दो के सुनने का भोग हो, चाहे कामवासना का भोग हो, कोई भी भोग शान्ति के साथ नही भोगा जा सकता है। भोगते समय व्यग्रता और आकुलता नियम से होती है । भोगने का संकल्प बने तब व्यग्रता, भोग भोगो तब व्यग्रता और भोग भोगने के बाद भी व्यग्रता । आदि से अंत तक उन भोगो के प्रसंग में क्लेश ही क्लेश होते है ।
भोग से अतृप्ति का दृष्टान्तपूर्वक समर्थन भोग भोगने से तृप्ति नही होती है। जैसे अग्नि कभी ईधन को खा-खाकर तृप्त नही हो सकती है, जितना ईधन बढे उतना ही
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