Book Title: History of Canonical Literature of Jainas
Author(s): Hiralal R Kapadia, Nagin J Shah
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 37
________________ 20 THE CANONICAL LITERATURE OF THE JAINAS with four types of mati-jñāna. These disciples, as some say, are not necessarily the Pratyekabuddhas, but whatever it may be, we have no means to know exactly which works were composed by them. The works styled as Païnnagas and enumerated under the two groups known as kāliya-suyaand ukkāliya-suya3 are perhaps some of the works composed by these Pratyekabuddhas. Whether it is so or not, their genesis will be taken up hereafter. (2) As stated in Pajjosavanākappa (s. 147) and in Trisasti (X, 13, v. 223-224)5, Lord Mahavira when he was about to attain nirvana, श्रमणानधिकृत्य वेदितव्यं, इतरथा पुनः सामान्यश्रमणा: प्रभूततरा अपि तस्मिन् २ ऋषभादिकाले आसीरन्, अपरे पुनरेवं प्रज्ञापयन्ति - ऋषभादितीर्थकृतां जीवतामिदं चतुरशीतिसहस्रादिकं श्रमणपरिमाणं प्रवाहतः पुनरेकैकस्मिन् तीर्थे भूयांस: श्रमणा वेदितव्याः, तत्र ये प्रधानसूत्रविरचनशक्तिसमन्विता: सुप्रसिद्धतद्ग्रन्था अतत्कालिका अपि तीर्थे वर्तमानास्तत्राधिकृता द्रष्टव्याः, एतदेव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह - 'अथवे'त्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने, यस्य ऋषभादेस्तीर्थकृतो यावन्तः शिष्यास्तीर्थे औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कर्मजया पारिणामिक्या चतुर्विधया बुद्धया उपेता:-समन्विता आसीरन् तस्यऋषभादेस्तावन्ति प्रकीर्णकसहस्राण्यभवन्, प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव, अत्रैके व्याचक्षते - इह एकैकस्य तीर्थकृतस्तीर्थेऽपरिमाणानि प्रकीर्णकानि भवन्ति, प्रकीर्णककारिणामपरिमाणत्वात्, केवलमिह प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाणप्रतिपादनात्, स्यादेतत् - प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते, तदेतदसमीचीनं, यतः प्रव्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निषिध्यते, न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, ततो न कश्चिद् दोषः, तथा च तेषां ग्रन्थः - इह तित्थे अपरिमाणा पइन्नगा, पइन्नगसामिअपरिमाणतणओ, किंतु इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं पइन्नगं भाणियव्वं, कम्हा ?, जम्हा पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं कीरइ, (इति) भणियं 'पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव' त्ति, चोयग आह - 'नणु पत्तेयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए' आयरिओ आह - 'तित्थयरपणीयसासणपडिवन्नत्तणओ तस्सीसा हवंती'ति, अन्ये पुनरेवमाहुः - 'सामान्येन प्रकीर्णकैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभिधानं, न तु नियोगत: प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानीति'।" 1 See the ending portion of fn. 1 of p. 19. 2-3 See pp. 25-26. 4 The pertinent lines are as under : "छठे भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयंसि संपलिअंकनिसण्णे पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे २ कालगए" 5 They are "कल्याणफलपाकानि पञ्चपञ्चाशतं तथा । तावन्त्यपविपाकानि जगावध्ययनानि तु ॥ २२३ ॥ षत्रिंशतमप्रश्नव्याकरणान्यमिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरूरभावयत् ॥ २२४ ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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