Book Title: Gyan Pradipika
Author(s): Ramvyas Pandey
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( घ ) विशेष खटकती है। हाँ, प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य की अपेक्षा जैन कन्नड़ साहित्य ने इस विषय में कुछ आगे पैर पढ़ाया है अवश्य । फिर भी वह सन्तोषप्रद नहीं है, क्योंकि तद्विषयक वे ग्रन्थ संस्कृत ग्रन्थों की छायामात्र हैं । अर्थात् वहां भी मौलिकता की महक नहीं है। इस त्रुटि का कारण मुझे तो और ही प्रतीत होता है। जैन साहित्य में मौलिक ग्रन्थों के लेखक ऋषि महर्षि ही हुए हैं। साथ ही साथ जैन धर्म निवृत्तिमार्ग का प्रतिपादक सर्वोच्च लक्ष्य को लिया हुआ एक उत्कृष्ट धर्म है। इसी से ज्ञात होता है कि विषय- विरक्त एवं आध्यात्मिक रसिक उन ऋषि महर्षियों का ध्यान इन offer ग्रन्थों की ओर नहीं गया । या उन्होंने सोचा होगा कि हिन्दू वैद्यक तथा ज्योतिष प्रन्थों से भी जिज्ञासु जैनियों का कार्य चल सकता है। क्योंकि धर्मविरुद्ध कुछ बातों को छोड़ कर हिन्दू एवं जैन वैद्यक तथा ज्योतिष ग्रन्थों में विशेष अन्तर नहीं पाया जाता है कन्नड़ साहित्य के लेखक अधिक संख्या में गृहस्थ ही थे । अतः उनकी रूचि उस ओर अधिक आकृत होना स्वाभाविक ही कहा जा सकता है । अस्तु फिर भी खोज करने पर इस विषय के मौलिक ग्रन्थ अवश्य ही उपलब्ध हो सकते हैं। अतः साहित्यप्रेमियों को इस कार्य की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये । खास कर कर्णाटक प्रांत के ग्रामों में खोज करने से इस सम्बन्ध में विशेष सफलता मिल सकती है । 1 - प्रस्तुत ग्रन्थ जैन हैं ? यह एक जटिल प्रश्न है। क्योंकि मंगलाचरण के अतिरिक्त इन दोनों (सामुद्रिक शास्त्र तथा ज्ञानप्रदीपिका ) ग्रन्थों में जैनत्व को व्यक्त करने वाली कोई खास बात नजर नहीं आती है। बल्कि जिसका मूल पाठ इस मुद्रित ग्रन्थ के प्रारम्भ में दिया गया है उस ज्ञानप्रदीपिका की तेलगु अत्तर में मुद्रित मैसोर की प्रति में हिन्दुत्वद्योतक ही मंगलाचरण मिलता है । हां, इन ग्रन्थों के अनुवादक सुयोग्य विद्वान् ज्योतिषाचार्य पं० रामज्यस जो प्रस्तुत ग्रन्थद्वय में अन्यतम सामुद्रिक शास्त्र के कर्त्ता - सम्बन्धी मेरे प्रश्नों के उत्तर में ता० २५-६-२६ के अपने पत्र में इस प्रकार लिखते हैं-"आप का पत्र मिला । उत्तर में विदित हो कि पुराणों के सामुद्रिक और इस में भेद है। फल दोनों से एक आता है; किन्तु इसकी उक्ति बढ़िया है। चाहे बात कहीं को हां लेकिन यह पुस्तक जैनसिद्धान्तनिर्मित ही कही जायगी ।” ज्ञानप्रदीपिका के सम्बन्ध में भी इसी ज्योतिषाचार्यजी ने इस विशेष वक्तव्य के पहली दी हुई अपनी प्रस्तावना में निम्न प्रकार से लिखा है : "इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर की विशेषताओं के देखने से जान पड़ता हैं कि इस शास्त्र का विकास भी अन्य शास्त्रों की तरह जैनों में स्वतन्त्र और विलक्षणरूप में हुआ है । " For Private and Personal Use Only

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