Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका १० ५ सुनदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् यत्रैव सौगन्धिका नगरी यत्रैव परिनाजकारसथ , तत्रैवोपागन्छति, उपागत्य पग्विानकायसवे भाण्डकनिक्षेप करोति = त्रिदण्डादीन्युपकरणानि स्थापयति, कृत्वा सारख्यसमयेन सार यसिद्वान्तानुसाराचारेण आत्मान भावयन् विहरति ।
ततः खलु सौगन्धिकाया नगर्या शगाटत्रिकचतुष्कचत्वरेपु यावद् राजपयेषु वहजनोऽन्योन्यस्य परस्परम्-एवमाख्याति - कथयति, एव सलु शुको नाम परिव्राजक इह अस्यां सोगन्धिकाया नगर्या हव्यमागता समागतः यावदासमान भावयन् विहरति । परिपनिर्माता । मुदर्शनोऽपि निर्गत । ततः खलु स आश्रम या वहा आया। ( उवागच्छित्ता परिवायगावससि मडल निक्सेव करेइ, करित्ता सख समणेण अप्पाण भावेमाणे विसरह) आकर उसने उम परिव्राजकाश्रम में अपने भाडों को रख दिया। और रख कर सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति चालू रखता एआ ठहर गया। (तण्ण सोगधियाग नयरीए सिंघाडगतिगचउम
चच्चरेसु बजणो अन्नमन्नस्स एबमाइग्बइ ) इसके बाद उस सौ__ गधि का नगरी में श्रृंगाटक, त्रिक, चतुक, चत्वर यावत् राजमार्ग में
अनेक जन परम्पर में इस प्रकार बात चीत करने लगे ( एव खलु सुए परिन्वायए इह हव्वमागए जाव विहरड) पधुओ। शुक नाम का परिव्राजक इस अपनी सौगधिको नगरी मे अभी आया है।- वह सारय सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति रखता हुआ परिव्राजका श्रम में ठहरा हुआ है। इस बात से परिचित होकर (परिमा निग्गया, सुदसणो, निग्गर, तण्ण से सुप परिवायए तीसे परिसाए सुदसणस्स
સૌરાધિકાનગરી હતી અને જ્યા પવ્રિાજકોને આશ્રમ હતું ત્યા આ (उबागच्छिता परिचायगावसह सि भडगनिम्खेव करेइ, करित्ता सस सभरेण अपाण भावेमाणे विहरइ ) त परिवारजना आश्रममा पहायान तने પિતાની બધી વસ્તુઓ મૂકી દીધી અને ત્યા સાખ્ય સિદ્ધાન્તને અનુસરીને पोताना मना प्रया२ ४२ २७वा साये! (तएण सोगधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउकचच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ) त्या२मा भौग. ધિકા નગરીમા & ગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક ચત્તર અને રાજમાર્ગમા ઘણુ માણસે
मा त पात। ४२१साया-( एव सलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरइ) भित्र ! मापी नगरीमा शु नामे मे परिमा હમણા જ આ છે સાખ્યસિદ્ધાંત અનુસાર તે પિતાની પ્રવૃત્તિઓ આચર ता परिना४४ मारममा आयेछे मा यातनी ! यता (परिसा