Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ज्ञाताने कथासूत्रे
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ततस्तदनन्तर खलुस पिशाचरूपः पिशाचरूपधारी देवः, अरहनक यदा नो शक्नोति नैग्रन्य्यात् प्रवचनात् चालयितु न क्षोमयितु नाविपरिणमयितु वा 'ताहे, तदा स पिशाच: 'सते ' श्रान्तः = परिश्रम प्राप्तः स्थग्नः, मनसा खिन्न इत्यर्थः, यावद - अत्र यावत् करणेन - 'तते' परितते इत्यनयो सग्रह । तान्वः शरीरेण खेद माप्त, परितान्तः = सथा खिन्न, निच्चिन्ने निर्विण्णः उपसर्गकरणात् प्रतिनिवृत्त, तत् पोतवहन = नौकायान, शनैः शनैरुपरिजस्य, 'ठवेइ' स्थाप यति० 'ठावित्ता' स्थापयित्वा तद दिव्य पिशाचरूप 'पडिसाहर ' प्रतिसहरति सबोधित कर " मुझे इस निग्रर्थ प्राचसे कोइ भी देव विचलित नहीं कर सकता है " ऐसा ही विचार कहा तथा अडिग भावसे निर्भय धन मौन लिये हुए अपने धर्मध्यानमे ही वह स्थिर रहा।
( तरणं से पिसायरूवे अरहन्नग जाहे नो सचाएड, निग्गधाओ पावयणाओ चालित वा खोभित्तए वा विपरिणा मित्तए वा ताहे सते जाव निचिन्ने त पोयवहण सणिय उचरिजलस्स ठबेइ ) इस तरह वह पिशाच रूप धारी देव जय अरहन्तक श्रावक को निर्ग्रन्थ प्रवचन० से चलाने के लिये, उस से क्षुभित करने के लिये, विपरिणमित करने के लिये समर्थ नहीं हो सका तब श्रान्त और भग्न मन से खिन्न होकर वह उपसर्ग करने रूप अपने कृत्य से प्रति निवृत्त हो गया । और धीरे २ आकाश से उतार उस पोतयान को उस ने पानी के ऊपर रख दिया । ( ठावित्तात दिव्त्र पिसायम्व पडिसाहरइ )
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વિચાર કરીને ક્યુ આ નિગ્રંથ પ્રવચનથી મને કઈ પણ દેવ હટાવી શકશે નહિ ‘” આમ વિચારી ને નિશ્ચળ અને નિર્ભીય થઈને તે મૌન પાળતા તે પેાતાના ધર્મધ્યાન માજ તલ્લીન રહ્યો
(तरण से पिसायरूवे अरहन्नग जाहे नो सचाएइ निग्र्गथाओ पावयणाओ चालित वा खोभित्तएवा निपरिणामितवा ताहे सते जात्र निव्त्रिन्ने त पोयवह पू सणिय उवरि जलस्स ठवेइ )
આ પ્રમાણે પિશાચ રૂપધારી દેવ જ્યારે અહન્ન શ્રાવકને નિગ્રંથ પ્રવચનથી વિચલિત કરવામા, તેનાથી ક્ષુભિત કરવામા, વિપણિમિત કરવામાં શક્તિમાન થઈ શકયા નહી ત્યારે થાત અને લગ્નમનથી ખિન્ન થઈને ઉપ સ કરવા રૂપ પાતાના કમથી પ્રતિનિવૃત્ત થઈ ગયા અને આકાશમાથી धीमेधाभे उतरीने ते पहा! नेपाली उपर भूगंधु (ठाविचात दिव पिसायरुव परिसारण )