Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनगारधर्मामृतपिणी टीका अ०८ अहराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३६६ विलीनयति० । प्रतिसहत्य-पिशाचरूपमन्तर्हित कृत्वा दिव्य प्रशस्त परमसुदर देवरूप विकुर्वति प्रादुर्भाग्यति । विकुर्वित्या = दिव्य देवरूप प्रादुर्भाव्य, अन्तरिक्षपतिपन्ना=आकाशस्थित', 'सखिखिणियाड' सकिंकिणीकानि यावद् प्रवरवस्त्राणि परिहितः, स देवोऽरहन्नक अमणोपासकमेव वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-हभो । अहो ! अरहन्नक ! धन्योऽसि खलु त्व, हे देनानुमिय ! यावत् त्वया जन्मजीवितफल लन्ध, यस्य खलु तव निर्ग्रन्थे प्रवचने इममेतद्पा पतिपत्तिः सम्यक्श्रद्धा रब्धा-उपार्जिता प्राप्ता-स्वायत्तीकृता०, अभिममन्वागता रखकर फिर उसने वह अपना दिव्य पिशाच का रूप समेट लियाअन्तर्हित कर लिया- (पडिसाहरित्ता दिव्व देवस्व विउव्वइ, विउन्धित्ता अतलिक्खपडिवन्ने सखिसिमियाइ जाव परिहिए अरहन्नग जाव समणोवासय एव चयासी) अन्तर्हित कर के फिर बाद में वह अपने वास्तविक दिव्यरूप में आ गया।
दिव्यरूप में आकर के उसने जो उस समय वस्त्रो को धारण कर रखा था-वे क्षुद्र घटिकाओ से युक्त बडे ही सुन्दर थे । आकाश में रह 'कर ही उसने श्रमणोपोसक अरहन्नक से इस प्रकार कहा-( भो
अरिहन्नगा ! धन्नो सि ण तुम देवाणुप्पिया जाव जीवियफले जस्सण तव निग्गये पावयणे इमेयारूवे पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया) अहो अरहन्नक | तुम धन्य हो। हे देवानुप्रिय तुमने यावत् जन्म और जीवन का फल प्राप्त कर लिया है जो इस निग्रंन्य प्रवचन मे इस प्रकार મૂકીને તેણે પિતાનું દિવ્ય પિશાચરૂપ અતિહિત કરી લીધુ
पडिसाहरित्ता दिव्य देवस्व विउच्वइ, विउविता अनलिक्खपडिवन्ने सखिणियाइ जाव परिहिए अरहन्नग जान समणोवासय एव वयासी)
અન્તહિંત કરીને તેણે પિતાના સાચા દિવ્ય રૂપને ફરી ધારણ કરી લીધું
દિવ્ય રૂપમાં પહેરેલા તેના વસ્ત્રો નાની નાની ઘૂઘરીઓવાળા ખુબજ સુંદર હતા આકાશમાજ સ્થિર રહીને તેમણે પાસડ અન્નકને આ પ્રમાણે કહ્યું
(ह भो अरिहन्नगा पन्नोसि ण तुम देवाणुप्पिया! नाव जीवियफले जस्त ण तब निग्गये पावयणे इमेयाख्या पडिपत्तीद्धा पत्ता अभिममन्नागया)
હે અહમ્નક તમે ધન્ય છે ! હે દેવાનુનય ! તમે એ પૂર્ણ પણે જન્મ અને જીવનનું ફળ મેળવી લીધું છે કેમ કે આ નિગ્ન થે પ્રવચનમાં આ રીતે