Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ६ इन्द्रभूते' जीवविषये प्रश्न १७१
टीकार्थ-ततः खल स इन्द्रभृतिः जातश्रद्धः०यमणस्य भगवतो महावीरस्य एव-क्ष्यमाणमकारेण-अबादीत् कयं खलु भदन्त । जीवाः 'गुस्यत्त' गुस्कत्वअधोगमनस्वभावकत्ल च लहुयत्त' लघुकत्व-उर्ध्वगमनस्वभावकत्व 'च मागच्छइ हव्यमागन्छन्ति = भगवान् महावीरस्वामी दृष्टान्तप्रदर्शन पुरः सरमुत्तरमाह-' गोयमा' इत्यादि। गौतम !' से ' अथ, 'जहानामए । यथानामका यत्किंचिन्नामकः, एक महत् शुष्क तुम्ब निश्उिद्र-छिद्रवर्जित 'निरुपय निरुपहत वातादिकृतविकाररहितम्. अविशीर्णम् अविदारितमित्यर्थः दभैःडाभनाम्ना प्रसिद्धैस्तृणविशेषः, कुशै. स्वनामविख्यातैस्तणविशेषैः, वेष्टयति, वेष्टयित्वा मृत्तिकालेपेन 'लिंपड' लिम्पति-लिप्त करोति 'लिंपित्ता' लिप्त्वा 'उण्हे' उष्णे-मर्यातपे' ददाति-धारयति, शुष्क सत् द्वितीय मपि-द्वितीय
तएणसे इदभूई जाय सड्डे' इत्यादि । टीकार्य-(तएण) इनके बाद (से इदभूई जाय सड़े०) उन इन्द्रभूति ने कि जिन्हें प्रभु के ऊपर-अपूर्व श्रद्धा है (समणस्स३ एव वयासी) श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार पूछा-(कण भते ! जीवा गुरुयत्तवा लहुयत्त वाहन्धमागधति) हे भदत जीव कैसे भारी अधोगमन करने केस्रभाव को और कैसे लधु स्वभाववाले उर्ध्व गमन करने के स्वभाव को प्राप्नकरते है ? उनके इस प्रश्नका उत्तर भगवान् दृष्टान्त पूर्वक इस प्रकार देते हैं
(गोयमा! से जहा नामए केइ पुरिसे एग मह सुक्क तुब निच्छिह निरुवय दम्भेहिं कुसेहिं वेढेड, वेदित्ता मट्टियालेवेण लिंपड, लिपित्ता उण्हे दलयइ) हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष एक घडी सी निश्छिद्र, वातादि
'तएण से इदभूई जाय सड्ढे' इत्यादि
टीआर्थ-(तएण) त्या२ मा (से इदभूई जाय सड्ढे) प्रलु २ भूम al धरावना न्द्रभूतिय (समणस ३ एष वयासी) श्रम समपान मडावीरने या प्रमाणे प्रश्न पूछयो (कहण्ण भते ! जीवा गुसयत्त वा लहुयत्त वा हव्यमा गच्छति) महन्त ! सारे अधोगमन ४२ना२ २१मापन तम गमन કરનાર લઘુ સ્વભાવને જીવ કવી રીતે મેળવે છે? તેમના આ પ્રશ્નનો જવાબ ભગવાન મહાવીર સ્વામી દુષ્ટાતની સાથે આ પ્રમાણે આપે છે
( गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एग मह सुक्क तुब निजिद निरुवय दभेहि कुसेहि वेढेइ वेदित्ता महियालेवेण लिंपह पिता उन्हे दलयइ) गौतम! म १६ मास मे भेटी
नितहिनि