Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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छाताधर्मका
नगिरिसाम्याद् अञ्जनगिरेः मन्दरमित्र तन्मुन प्रतिभातीतिभात्र । ' अग्गिजा लुग्गितायण 'अग्निजलोद्विरद् नम् अग्निज्वाला उद्विरदू=बहिष्कुर्वद्य दन मुख यस्य स तथा तम्, यस्य मुखाइ अग्निजालानिस्तरति तथाविधमित्यर्थः, 'आऊसिय अक्खचरम अट्टगडदेस ' आयुपिताक्षचर्मापकृष्ट गण्डदेशम् - आयुषित लियुक्तम् यदक्ष -शको जलाकर्षण कोशस्तदपष्टौ = अन्तः मनिष्टों गण्डदेशों यस्य स तथा तम् ' चीणचिरिकभग्गणाम ' चीन चिपिट वक्रमग्ननास = चीना =स्वा, चिपिटा=निम्ना, का=कुटिला, भग्ना=भग्ने अयोजनोपरिनेन प्र तेच नासा यस्य स तथा त चिपिटनासिकापन्तमित्यर्थः ' रोमागयषमघर्मत मारुत निठुरखर फरुसयुसिर ओभुग्गणा सियपुड' रोपागतघमघमायमानमारुतनि समान था । यह स्वय अति विशाल और अत्यत काले वर्ण का था इस लिये अजनगिरि के जैसा था तथा इस की जिह्वा और तालुये दोनों अतिरक्त थे इस लिये वे हिग्गुल के समान लाल थे ।
इसलिये सूत्रकार ने उम के मुख को अजनगिरि की हिंगुलक से भरी हुई कदरा से उपमित किया है । इस के मुख से अत्यन्त लाल जिहा और तालु वाला होने के कारण ऐसा ज्ञात होता था कि मानो अग्नि की ज्वाला ही बाहर निकल रही है । (आऊसियअक्ख चम्म उगडदेस, चीणचिपिष्डवक भग्गणास रोसागयघमघमेतमारुत निठुर खरफरुसझुसिरओभुग्गणासिपुण्ड, घाटुभरइयभीसणमुह ) इस के दोनों कपोल ( गाल ) पानी को खीच ने वाले शुष्क वलि युक्त चरस के समान भीतर को घुसे हुए थे । नासिका इस की ह्रस्व चिपटी थी । टेडी इस नासि का के छेदो से जो श्वासोच्छ्रवास निकलता અતિશય કાળાર્ગનુ હતુ એટલા માટે જ તે અજનગિરિ જેવુ હતુ તેની જીભ અને તાળવુ મને ખૂબજ લાલ હતા એથી તે હિંગળાક જેવા લાલ હતા સૂત્રકારે અ જનગિરિની હિંગળાકથી ભરેલી કદરાની તેના માની જે ઉપમા આપી છે. તેની પાછળ એજ કારણ છે તેવુ તાળવુ અને જીભ ખૂબજ લાલ હાવાથી એમ લાગતુ હતુ કે જાણે તેના મામાથી અગ્નિની જવાળાઓ મહારનીકળી રી હાય
(आऊसिय अक्ख चभ्म उहगडदेस चीण चिपिडवक भग्गणास रोसागय धम मेत मारूत निठुर खर फरुस झुसिरओ भुग्गणासियपुड धाडुव्भडरइयभीसणमुद्द તેના અને ગાલ રામની જેમ કરગલીયાવાળા જેમ મેમા પૈમી ગયેલા હતા નાક તેનુ નાનુ અને ચપટું હતુ ત્રાસા નાકના છિદ્રોથી શ્વાસાચ્છવાસ