Book Title: Dravya Pariksha Aur Dhatutpatti
Author(s): Thakkar Feru, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Jain Shastra Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 26
________________ व्यपरीक्षा ठक्कूर फेरू ने अपनी प्रथम रचना 'युग प्रधान चतुष्पदिका' केवल अपभ्रंश में की है । अवशिष्ट सभी कृतियाँ प्राकृत में हैं। उसकी भापा सरल, प्रवाही और अपभ्रंश या तत्कालीन लोक भाषा के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित है। ग्रन्थोक्त अनेक विषय तत्कालीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, वस्तुव्यापार, शिल्प स्थापत्य एवं जानतिक संस्कृति पर विशद और महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। इनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। १. युगप्रधान चतुष्पदिका-यह कृति तत्कालीन लोकभाषा अपभ्रंश में २८ चौपई व एक छप्पय में रची गई है। इसमें भगवान महावीर से लगाकर खरतर गच्छ के युगप्रधान प्राचार्यों को नामावलो निवद्ध है। आचार्य श्री बद्धमानसरि के पट्टधर श्री जिनेश्वरसरि से खरतर गच्छ हुआ। उनके परवर्ती आचार्यों के संबन्ध में कतिपय संक्षिप्त ऐतिहासिक वृत्तान्तों का भी निर्देश किया गया है । यतः (१) श्री जिनेश्वरसूरिजी ने अणहिलपुर पाटण में दुर्लभराज के समक्ष ८४ आचार्यों को जीतकर वसति मार्ग प्रकाशित किया। (२) श्री जिनचंद सूरि ने अपने उपदेशों द्वारा नपति को रंजित किया एवं 'संवेगरंगशाला' नामक विशिष्ट ग्रन्थ की रचना की। (३) श्री अभयदेवसूरि ने ९ अंगों पर टीकाएं बनाई एवं स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट की। (-) श्री जिनवल्लभ सूरि ने नंदी, न्हवण, रथ, प्रतिष्ठा युवतियों के ताल्हारास आदि जिन मन्दिरों में रात्रि में किए जाने का निषेध किया। (५) श्री जिनदत्तसूरि ने उज्जैन में ध्यान बल से योगिनी चक्र को प्रतिवोध दिया। शासन देवता ने इन्हें 'युगप्रधान' पद धारक घोषित किया। (६) श्री जिनचंद्रसूरि बड़े रूपवान थे। इन्होंने बहुत से श्रावकों को प्रतिवोध दिया। (७) श्री जिनपतिसूरि ने अजमेर के नपति (पृथ्वीराज) की सभा में पद्मप्रभ को पराजित कर जयपत्र प्राप्त किया। (८) श्री जिनेश्वरसूरि ने अनेक स्थानों में जिनालय एवं तदुपरि ध्वज, दण्ड, कलश, तोरणादि स्थापित किये एवं १२३ साधु दीक्षित किए। इनके पट्टघर श्री जिन प्रबोधरि के पट्टधर श्री जिनचंद्रसूरि के समय में कराणा में वाचनाचार्य राजशेखर गणि के समीप, सं० १३४७ माव मास में इस चतुष्पदी की रचना हई। इसकी एक प्रति हमें जैसलमेर भण्डार का अवलोकन करते हए प्राप्त हई थी। इसे पत्राकार में व प्रतिक्रमण पुस्तक में उपाध्याय श्री सुखसागर जी ने प्रकाशित की थी। वह रचना संस्कृत छाया व हिन्दी अनुवाद सह राजस्थान भारती में भी प्रकाशित हुई थी। Aho! Shrutgyanam

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