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भूमिका
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श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' में इनकी कृतियों का जो नामोल्लेख किया है वह प्रति अब कहाँ और किस भंडार में है इसको शोध होनी चाहिए। स्वर्गीय मुनि कान्तिसागर जी ने इनके भूगर्भप्रकाश ग्रन्थ का जो उल्लेख किया है, यदि वह ग्रन्थ प्राप्त हो तो उसे भी प्रकाश में लाना आवश्यक है क्योंकि उस विषय का वह एकमात्र ग्रन्थ होगा ।
मुद्रा सम्बन्धी टिप्पणियाँ
मध्यकालीन साहित्य में हम द्रम्म मुद्रा का सार्वत्रिक प्रचलन पाते हैं । परन्तु द्रम्म मुद्रा भिन्न-भिन्न राज्यों में व भिन्न-भिन्न शासकों द्वारा प्रवर्तित विविध प्रकार की होती थी। द्रव्यपरीक्षा में भी ठक्कुर फेरू ने ग्रन्थ निर्माण के समय सात प्रकार भो कुतुबुद्दोनी द्रम्म मुद्राओं का वर्णन किया है । इतः पूर्व भिन्न-भिन्न समय में बहुत प्रकार के द्रम्म प्रचलित थे जिनका यहाँ विचार किया जाता है ।
पारत्थक द्रम्ममुद्रा
द्रम्मको पारसी में दीरम कहते हैं पर द्रम्म मुद्रा भारत में मुसलमानों के आगमन से पूर्व भी प्रचलित थी । सं० ८०२ में पाटण वसा । उस समय की बात है। कि कान्यकुब्ज नरेश ने अपनी पुत्री महणिका को कञ्चुक संबन्ध से गुजर देश दिया जिसकी छ: मास में २४ लाख पारुत्थक द्रम्म उगाही होते थे । ( पुरातन प्रबन्ध संग्रह पृ० १२८ )
सन् ११०० के लगभग धारानरेश नरवर्म का राज्य मालव और मेवाड़चित्तौड़ पर भी था । नवाङ्गीवत्ति कारक खरतर गच्छीय आचार्य श्री अभयदेव सूरि के पट्टधर श्री जिनवल्लभसूरि को विद्वता से प्रभावित होकर तीन गाँव या तीन लाख पारुत्थ देना चाहा। सूरिजी ने कहा- हम संयमी लोग अर्थसंग्रह नहीं करते । राजा ने प्रसन्न होकर चित्तौड़ के विधि चैत्य की पूजा के लिए प्रतिदिन दो पारुत्थ मंडी से देने की व्यवस्था की। (युगप्रधानाचार्य गुर्वावली पृ० १३ )
संवत् १२१: में साहगोलक कारित मरोट के विधि चैत्यचन्द्रप्रभ जिनालय पर मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरिजी के तत्त्वावधान में स्वर्णमय कलश दण्ड- ध्वजारोपण हुआ उस समय सेठ क्षेमन्धर ने पाँच सौ पारुत्थ द्रम्म देकर माला ग्रहण की थी। (दुगप्रधानाचार्य गुर्वावली पृ० २० )
संवत् १२३३ में श्रीजिनपतिसूरिजी ने हाँसी पधार कर पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े समारोहपूर्वक की। उस पर ध्वजा-दंड व स्वर्णकलशारोपण कराने के लिए दुसाज साल की पुत्री ताऊ श्राविका ने पाँच सौ पारुत्य द्रम्म देकर मालाग्रहण को । ( यु० प्र० गुर्वावली पृ० २४ )
संवत् १२३९ में अजमेर में अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज की सभा में श्रीजिनपतिसूरिजी ने चैत्यवासी पद्मप्रभ के साथ शास्त्रार्थ में विजय पाई जिसकी
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