Book Title: Dravya Pariksha Aur Dhatutpatti
Author(s): Thakkar Feru, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Jain Shastra Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 73
________________ चालत्पतिः लोहं सारं च पुणो उप्पत्ती धाहु पाहणामो य । पित्तल कंसाईणं विणट्ठए होइ भिगारी ॥१३।। अथ रंगयं जहा रंगस्स घाहु कुट्टिवि करिज्ज कोमंस चुण्ण सह पिंडं। धमिय निसरई जं तं पुण गालिय कंबिया होन्ति ॥१४॥ अथ कंसयं जहा कंबिय सेरक्कारस मणेग तम्बं च पयर गुदवा ॥ आवट्ट घडिय सुद्धं कसं हुइ वीसयं सूणं ।।१५।। अथ पारयं जहा पारस्स धाह ठवियं तस्सोवरि गोमयह कूढि कूज्जा। मंदग्गि धमियमाणो उड्डवि संचरइ तस्स महे ।।१६।। अहवा रसकूव भणन्तेगे तरुणत्थी तत्थ करवि सिंगारं। तुरियारूढं झक्किवि अपुट्ठपयरेहि नस्सेइ ।।१७।। कुवाओ तस्स कए पारं उच्छलवि धावए पच्छा । बाहुडइ दहमकाओ पुणोवि निवडेइ तत्थेव ।।१८।। जं रहइ नियट्ठाणे कत्थेव खड्ड-खड्डीहिं । तत्थाउ गहइ सा तिय उप्पत्ती पारयस्स इमं ॥१९॥ १३. लोहसार की उत्पत्ति फिर धातु पाषाण से होती है। पीतल कांसे आदि के विनष्ट होने पर (एक साथ गालने से) भिंगारी (भरथ = भरत = भरण) हो जाती है। (भांगड़ी टूटे-फूटे बर्तन को कहते हैं तथा भंगार के भरतिये आदि बरतन तैयार होते हैं )। १४. रांगा--- राँगा धातु को कूटकर कोमंस चूर्ण के साथ पिण्ड करना। फिर गला कर नाली में चुभाने से-ढालने से कंबिया (कामो या गुल्ली) बन जाती है। १५. काँसा-ग्यारह सेर कंबिया या गुल्ली, एक मन ताँबा पत्तर या गुट्ट (पकिया) को औटाने से शद्ध काँसा बन जाता है। १६. पारा-पारा को धातु रखकर उसके ऊपर गोबर के कंडों का ढेर करके भट्ठो को ढंक देना । धीमी आँच में धमन करने से पारा उड़कर ऊपर लग जाता है । अथवा १७. पारे के कूप के विषय में कहा जाता है कि तरुण स्त्री वहां भंगार करके अश्वारूड होकर मांके बोर फिर बिना पीठ दिये भाग जाय । १८. उसके ऐसा करने पर रूप से पारद उछल कर पीछे दौड़ेगा बोर रेख कर बौटेगा और फिर वहीं पर गिर पड़ेगा। १९. जो नीचे स्थान या अपने स्थान (नियटाणे) में कहीं खड़े-खोतरे में रह जाय उसे वह स्त्री ग्रहण करे। यह पारद की उत्पत्ति कही है। Aho! Shrutgyanam

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