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षासूत्पत्तिः अथ धातोकरणी विधि :-कप्पूर-अगर-चंदण मगनामीत्यादि ।
दाहिणवत्तं संखं इगमुह रुद्दक्ख सालिगामं च । देवाहिट्ठिय तिन्नि वि अमुल्ल सपहाय भणियन्ति ।।२।। खीरोवहि संभूयं विभूसणं सिरिनिहाण रायाणं । दाहिणवत्तं संखं बहुमंगलनिलयरिद्धि रं ॥२६।। वटंति रेहकलियं पंचमुहं सुब्भ सोलसावत्तं । इय संखं विद्धिकरं संखिणि हुइ दोहहाणिकरा ॥३०॥ सिरिकणय मेहलजुयं वरठाणे ठविय निच्च सुइ काउं । दुद्धि न्हविऊण चन्दणि कुसुमागरि मन्ति पूइज्जा ।।३१।।
पूजामन्त्रः
ॐ ह्रीं श्रीं श्रीधरकरस्थाय पयोनिधिजाताय लक्ष्मीसहोदराय चिंतितार्थसंप्रदाय । श्रीदक्षिणावर्त्तसंखाय। ॐ ह्रीं श्रीं जिनपूजायै नमः ॥३२।।
___ इति पूजा विधिः दाहिणवत्तीय संखोयं जस्स गेहमि चिट्ठइ । मंगलाणि पवते तस्स लच्छी सयंवरा ॥३३॥ तस्संखि खिविय चंदणि तिलयं जो कुणइ पुहवि सो अजिनो। तस्स न पहव इ किंची अहि-साइणि-विज्जु-अग्नि-अरी ।।३४।।
धातुकरण विधि:
२८. दक्षिणावर्त शंख, एकमुखा रुद्राक्ष व शालग्राम ये तीनों देवाधिष्ठित होने से अमूल्य सप्रभाव वस्तु कहलाते हैं ।
२९. समुद्र में उत्पन्न, राज्यश्रीनिधान, आभूषण रूप दक्षिणावत्तं शंख बहुत मंगल और वृद्धि करने वाला होता है।
३०. पंचमुखा त्रिरेखाकलित, शुभ्र सोलह आवर्तवाला शंख वृद्धि करनेवाला और शंखिनी दूर तक हानिकारक होती है ।
३१. कनक मेखला युक्त उत्तम स्थान में रख, प्रतिदिन पवित्र हो, दुग्ध से स्नान करा चन्दन कुसुम अंगर से मंत्र पाठयुक्त पूजा करनी चाहिए ।
३२. पूजा मंत्र ऊपर लिखा है । यह पूजा विधि समाप्त हुई।
३३. दक्षिणावर्त शंख जिसके घर में रहता है उसके यहां हमेशा मंगल होते है और लक्ष्मी स्वयंवरा होकर जाती है ।
३४. उस शंस में डाले हुए चन्दन से जो तिलक करे वह पृथ्वी में अजय होता है। एवं सांप, शाकिनी, बिजली, अग्नि और शत्रु से उसका पराभव नहीं होता।
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