Book Title: Dravya Pariksha Aur Dhatutpatti
Author(s): Thakkar Feru, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Jain Shastra Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 77
________________ पातूत्पत्तिा गण्डयनइसंभूयं सालिग्गामं कुमारकणयजुयं । चक्कंकिय सावत्तं वट्ट कसिणं च सुपवित्तं ॥४०॥ लोया तईयभत्ता हरि व्व पूर्यति सालिगामस्स । सेयस्थि मुत्तिहेऊ पावहरं करिवि झायंति ॥४१॥ इति शालिग्रामम् । महभूमि दक्खिणोवहि केलिवणं तत्थ केलिगुदाओ। कहरव्वओ य जायइ कपूर केलि गन्भारो ॥४२॥ कप्पूर तिन्नि कित्तिम इक्कडि तह भीमसेणु चीणो य । कच्चाउ सुकमि मुल्लो वीस दस छ विसु व विसुवंसो ॥४३॥ कायासुगन्धकरणं तहत्थिमज्जाय भेयगं सीयं । वाय-सलेंसम-पित्तं तावहरं आमकप्पूरं ॥४४॥ __ इति कर्पूरः। अगरं खासदुवारं किण्हागर तिल्लियं च सेंवलयं । वीसं दस तिय एग विसोवगा सुकमि अन्तरयं ॥४५॥ ४० गंडक नदी में संभूत, चक्राङ्कित, आवर्तयुक्त, गोल, कृष्णवर्ण शालग्राम कुमार स्वर्णयुक्त पवित्र हैं। ४१ भक्त लोग विष्णु की तरह शालग्राम को पूजते हैं। श्रेय, मुक्ति और पापहरण के लिए उसका ध्यान करते हैं । कर्पूर : ४२ दक्षिण समुद्रतट की महाभूमि में केले के वन व केले के गूदवाले वृक्ष है। वहाँ केले के गर्भ में कर्पूर कहरवा (तृणकान्त मणि) की भांति उत्पन्न होता है। (वे वृक्ष हिमालय की तराई में होते हैं और कहरवा सभी प्रकार रक्त-पित्त रोग के लिए शामक और अमृत तुल्य है।) ४३. इक्कडि, भीमसेन और चीना तीन प्रकार का कृत्रिम कर्पूर होता है। उनका क्रमशः बीस, दस, और छः विंशोपक मूल्य एक विसवा भर तोल के लिए होते हैं। ४४. शरीर में सुगन्ध करने वाला, अस्थि, मज्जा तक भेदक, शीतल वाय-श्लेष्मपित्त, ताप और आंव को हरनेवाला कर्पूर होता है। अगर: ४५. खासदुवार, कृष्णागर, तिल्लिय और सेंवालक नामक अगर के मल्य में क्रमश: बीस, दस, तीन और एक विंशोपक का अन्तर है। Aho! Shrutgyanam

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