Book Title: Digambaratva Aur Digambar Muni
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Sarvoday Tirth

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Page 17
________________ करती है - वह रोगी अपने कपड़ों की सार-संभाल स्वयं नहीं कर पाता, किन्तु स्त्री या श्राय रोगी की सब सेवा करते हुए जरा भी अशिष्टता अथवा लज्जा का अनुभव नहीं करती। यह कुछ उदाहरण हैं जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि नग्नत्व वस्तुतः कोई बुरी चीज नहीं है। प्रकृति भला कभी किसी जमाने में बुरी हुई भी है ? तो फिर मनुष्य नंगेपन से क्यों झिझकता है? क्यों आज लोग नंगा रहना सामाजिक मर्यादा के लिये अशिष्ट और घातक समझते हैं? इन प्रश्नों का एक सीधा सा उत्तर है- “आज मनुष्य का नैतिक पतन चरम सीमा को पहुँच चुका है, वह पाप में इतना सना हुआ है कि उसे मनुष्य को आर्दश स्थिति दिगम्बरत्न पर घृणा आती है। अपनेपन को गंवाकर पाप के पर्दे में कपड़ों की आड़ लेना ही उसने श्रेष्ठ समझा है।” किन्तु वह भूलता है, पर्दा पाप की जड़ है - वह गंदगी का ढेर है। बस, जो जरा सी समझ या विवेक से काम लेना जानता है, वह गंदगी को नहीं अपना सकता और न ही अपनी आदर्श स्थिति दिगम्बरत्व से चिढ़ सकता है। वस्त्रों का परिधान मनुष्य के लिए लाभदायक नहीं है और न वह आवश्यक हो है। प्रकृति ने प्राणीमात्र के शरीर का गठन इस प्रकार किया है कि यदि वह प्राकृत वेश में रहे तो उसका स्वास्थ्य नीरोग और श्रेष्ठ हो तथा उसका सदाचार भी उत्कृष्ट रहे। जिन विद्वानों ने उन भील आदिकों को अध्ययन की दृष्टि से देखा है, जो नंगे रहते हैं, वे इसी परिणाम पर पहुँचे हैं कि उन प्राकृत वेष में रहने वाले 'जंगली' लोगों का स्वास्थ्य शहरों में बसने वाले सभ्यताभियान जनों अब होता है, और आचार-विचार में भी वे शहरवालों से बढ़े - चढ़े होते हैं। इस कारण वे एक वस्त्र परिधान की प्रधानता युक्त सभ्यता को उच्चकोटि पर पहुंचते स्वीकार नहीं करते।" उनका यह कथन है भी ठीक, क्योंकि प्रकृति की होड़ कृत्रिमता नहीं कर सकती। महात्मा गाँधी के निम्न शब्द भी इस विषय में दृष्टव्य हैं "वास्तव में देखा जाय तो कुदरत ने चर्म के रूप में मनुष्य को योग्य पोशाक पहनाई है। नग्न शरीर कुरूप दिखाई पड़ता है, ऐसा मानना हमारा भ्रम पात्र है। उत्तम - उत्तम सौन्दर्य के चित्र तो नग्न दशा में ही दिखाई पड़ते हैं। पोशाक से साधारण अंगों को ढककर हम मानों कुदरत के दोषों को दिखला रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे पास ज्यादा पैसे होते जाते हैं, वैसे हो वैसे हम सजावट बढ़ाते जाते हैं। कोई किसी भांति और कोई किसी भाँति रूपवान बनना चाहते हैं और बन-ठन कर काँच १. "Taving given some study to the subject. I may say thal Rev. JF. Wilkinson's remarks upon the superior morality of the races that do not wear clothes is fully bure out by the testimony of the travellers... is true that wearing of clothes goes with a higher state of the arts and to that extent with civilisation: but it is on the other hand attended by a lower state of health and morality so that no clothed civilisation can expect to attain to a high rank. -"Daily News. London" of 18th April, 1913. 11 (14) दिगम्बरात्व और दिगम्बर मुनि १

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