Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ (घ) है तब आर्ष सिद्धान्त के विरुद्ध लिखे गये ग्रन्थों द्वारा तो भावों (अभिप्रायों) में महान् अनर्थकारी अन्तर पड़ जाता है। ऐसे अनर्थों से जन साधारण को बचाने की सद्भावना से मैंने यह छोटी सी पुस्तक लिखी है । दि० जैन साहित्य में इस समय जो विकार आ गया है तथा पा रहा है उसका परिज्ञान कराना ही इस पुस्तक का मूल ध्येय है । आशा है जनता इस पुस्तकसे महान लाभ प्राप्त करेगी। मैं भी अल्पज्ञ हूँ, अतः सावधानी रखते हुए भी मुझ से त्रुटि होना असम्भव नहीं है । विज्ञ पाठक यदि उन त्रुटियों को मेरे पास पहुँचाने का प्रयास करेंगे तो उन त्रुटियों को निकाल दिया जावेगा, साथ ही मैं उनका बहुत आभार भी मानूगा। ___ यहाँ पर मैं श्री ब्र० शीतलप्रसाद जी का उल्लेख कर देना आवश्यक समझता हूँ। यद्यपि उनके साथ मेरा प्रत्यक्ष परिचय नहीं हो पाया, अतः मैं उनके विषय में वैयक्तिक रूप से कुछ विशेष नहीं जानता परन्तु उनके द्वारा श्री कुन्दकुन्द आचार्य के ग्रन्थों पर लिखी गई उनकी हिन्दी भाषा टीकाओं का स्वाध्याय करने का मुझे जितना अवसर मिला है उससे यह बात जान सका हूँ कि उन्होंने अपनी टीकाओं में तथा मौलिक रचनाओं में जिनवाणी का निर्दोष रूप स्थिर रक्खा है, कहीं कोई विकार मुझे उनके ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं हुआ। मनुष्य अल्पज्ञता तथा कषायभाव के कारण अपने कलुषित एवं कल्पित निराधार भाव जब दूसरों के मस्तक में उतारना चाहता है जब मिथ्या-अभिमान उसको विकृत साहित्य लिखने की प्रेरणा करता है, उस दुरभिमान और दुराग्रह से लिखा गया ग्रन्थ या साहित्य उसकी चिरस्थायी अपकीर्ति का कारण तो बनता ही है किन्तु उसके साथ जनसाधारण को भी कुछ समय के लिये भ्रम में डालकर श्रद्धालु समाज में कलह और भ्रम का बीज बो देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50