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कान जी अपने आपको महान ज्ञानी मानते हैं (किन्तु सब कोई जानता है तथा स्वयं कान जी स्वामी समझते हैं कि उनका ज्ञान, समुद्र में एक बूद के बराबर है। ) फिर भी वे जिनवाणी-समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय रुचि से स्वयं क्यों करते हैं ?
खुद (स्वयं) जिस बात को हितकारी समझकर करना और दूसरों को उस बात से दूर रखने की चेष्टा करना, विलक्षण बात है।
जिनवाणी को परस्त्री की हीन उपमा देना कितना निन्दनीय है यह बात भी उनके मन में नहीं आती ?
जब बुद्धिमान पुरुष अच्छे ग्रन्थों द्वारा अपनी ज्ञानवद्धि करता है तब कान जी स्वामी जिनवाणी-आर्षग्रन्थों को 'पर-विषय' बतलाकर उनके में रुचि पूर्वक स्वाध्याय से साधारण जनता को वंचित रहने का उपदेश देते हैं ।
कान जी का स्मरण सोनगढ़ में चम्पा बहिन बहुत ज्ञानवती विदुषी समझी जाती हैं। उसने अपने पिता जी को अन्तिम समय (मृत्यु के समय) एक पत्र लिखा था । वह पत्र 'आत्म-धर्म' पत्र के १२ वें वर्ष के ५ वें अंक में निम्नलिखित प्रकाशित हुआ है---
“परमपूज्य महाराज श्री कान जी परम पुरुष हैं उनका बहुमान पूर्वक स्मरण करना चाहिए।"
"उपरोक्त भावना बहिन श्री (चम्पा बहिन) ने अपने पूज्य पिताजी को अन्तिम समय में भाने के लिए लिख दी थी। जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी होने से यहाँ दी है।" ___ यहाँ विचारणीय यह है कि सम्यग्दृष्टि के लिये वन्दनीय तथा स्मरण करने योग्य अर्हन्त, सिद्ध , प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु हैं जिनको णमोकार मंत्र में नमस्कार किया गया है ।
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