Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 45
________________ द्विविधामय जगत के अस्तित्व को ही मिटा देना चाहा, पर क्या इससे ध्यवहार नाम शेष हुबा ? यदि निश्चय सत्याधिष्ठित है तो वह अपनी अपेक्षा से ही। यदि व्यवहार की अपेक्षा से भी उसे वैसा मान लिया जाय तो बन्ध मोक्ष को चर्चा करना ही छोड़ देना चाहिए । कविवर पं. बनारसीदास जी ने ऐसा किया था, पर अन्त में उन्हें एकान्त निश्चय का त्याग करके व्यवहार की शरण में आना पड़ा । आचार्य कुन्दकुन्द ने जो व्यवहार को अभूतार्थ कहा है वह व्यवहार की अपेक्षा नहीं, किन्तु निश्चय की अपेक्षा से कहा है। व्यवहार अपने अर्थ उतना ही सत्य हैं, जितना कि निश्चय । जिस प्रकार हम विविध पदार्थों को जानते हैं, किन्तु हमारा वह सब जानना झूठा नहीं है फिर भी वह ज्ञान ज्ञानस्वरूप ही रहता है। उसी प्रकार केवली भगवान् सब पदार्थों को जानते और देखते हैं, किन्तु उनका वह जानना असत्य नहीं है। फिर भी वह उनका ज्ञायकभाव आत्मनिष्ठ ही है । उपर्युक्त व्यवहार और निश्चय की कथनी का यही मथितार्थ है। -वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ३५४-३५५ सम्यक्त्व के साधन साधन दो प्रकार हैं-अभ्यन्तर और बाह्य । दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। बाह्य साधन निम्न प्रकार हैं-नारकियों के चौथे नरक से पहले तक अर्थात् तीसरे नरक तक किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण और किन्हीं के वेदनाभिभव से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। चौथे से लेकर सातवें तक किन्हीं के जातिस्मरण और किन्हीं के वेदनाभिभव से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। ___तिर्यंचों में किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण, और किन्हीं के जिनविम्बदर्शन से सभ्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। मनुष्यों के भी इस प्रकार जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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