Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 47
________________ ३८ जो तच्चमरयतं णियमा सहदि सत्तमगेहि । लोयारण पण्ह-वसदो ववहार-पवत्तरणट्ठं च ॥ ३७७|| - कार्तिकेय पृष्ठ २२१ अर्थ- जो लोगों के प्रश्नों के वश से तथा व्यवहार को चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियम से अनेकान्त तत्व का श्रद्धान करता हैं वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है । श्रीमद् रामचन्द्र में नय निश्चय एकांतथी, आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहि, बन्ने साथ रहेल ॥१३२॥ -आत्म सिद्धि, पृष्ठ ६२१ अर्थ - यहाँ एकान्त से निश्चय नय को नहीं कहा, अथवा एकान्त से व्यवहार नय को भी नहीं कहा। दोनों ही जहाँ-जहाँ जिस-जिस तरह घटते हैं, उस तरह साथ रहते हैं । उपादाननु नाम लई, ए जे तजे निमित्त । पामे नहीं सिद्धत्वने, रहे भ्रांतिमां स्थित ॥१३६॥ -आत्म-सिद्धि पृष्ठ ३२ अर्थ --सद्गुरु की आज्ञा आदि आत्म-साधन के निमित्त कारण हैं, और आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि उसके उपादान कारण हैं ऐसा शास्त्र में कहा है । इससे उपादान का नाम लेकर जो कोई उस निमित्त का त्याग करेगा वह सिद्धत्व को नहीं पा सकता, और वह भ्रांति में ही रहा करेगा । क्योंकि शास्त्र में उस उपादान की व्याख्या सच्चे निमित्त के निषेध करने के लिए नहीं कही । परन्तु शास्त्रकार की कही हुई उस व्याख्या का यही परमार्थ है कि उपादान के अजाग्रत रखने से सच्चा निमित्त मिलने पर भी काम न होगा, इसलिए सदुनिमित्त मिलने पर उस निमित्त का अवलंबन लेकर उपादान को सम्मुख करना चाहिए, और पुरुषार्थ-हीन न होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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